Monday, April 13, 2009

अहम मुद्दे की तालाश में दुनिया का सबसे लड़ा लोकतंत्र

लोकसभा चुनाव की सरगमी तेज हो चली है । सभी सियासी दल मतदाताओं को रिझाने में लगे है । वोट केवल मुद्दा रह गया है । विकास का जो खांका देश में खीचा गया था वह हाशिये पर चला गया है सभी अपनी डफली बजाने को तैयार है...लेकिन इसके बीच लोकतंत्र के लिए सबसे बुड़ी खबर यह है कि लोकतंत्र में जो मुददे सामने आने चाहिए थे उन मुद्दो से न तो प्रत्याशी को और न ही जनता को किसी तरह का मतलब रह गया है ...वो वायदे हाशिये पर चले गए...जो चीजे सामने नही आने चाहिए थी वही मुख्य चुनावी डोर बन गई । जिसे लेकर लगाम की तरह खीचने की होड़ हर सियासी दलो में लगी हुई है ।
मसलन 15 लोकसभा चुनाव बिना किसी मुददे के लड़ा जा रहा है । भाजपा शुरूआत से किसी जानदार मुददे को तराश रही थी जिससे पूरे देश में शोर-शराबा हो...माहौल बिगड़े और जनता का रूझान किसी न किसी तरह उसके पॿ में जाये । इसलिए राम से लेकर अय़ोध्या में मन्दिर मनाने के हर वायदे को चुनावी फलसफा वनाकर तैयार करने की कोशिश की गई । फिर भी कोई हवा न मिली तो बरूण को एक सियासत के तहत जहर उगलने के लिए तैयार किया गया । पीलीभीत की जनता ने उकसावे में आकर तोड़-फोड़ सहित तमाम नाटक किए जिसकी स्क्रिप्ट संध और भाजपा के मदद से तैयार की गई थी । बरूण पर रासुका लगाा और साल भर तक बेल नही मिलने का फरमान भी आया । कहने का मतलब कि किसी न किसी बहाने भाजपा अपने रास्ते पर देर-सबेर चली आई । जिसकी तालाश उसे थी ।
सेक्युलर पाटिॻया भी कहां कम है । विकास के मुद्दे से अधिक ये दल अपनी टोपी दिखाने में वक्त जाया करती है । मुझे नही लगता है कि इन नेताओ को लाल टोपी से ज्यादा कोई सरोकार है लेकिन मुसलमानो का वोट जो लेना है इसलिए किसी जनसभा में इसके बिना पहुंच ही नही सकते...यही तो सेक्युलर होने की पहचान है । इसलिए तो कोई ऐसा दल नही है जो इन्हे रिझाने का जुगत नही करता है । भला भाजपा के धमॻध्वजधारी के साथ समझौता ही क्यो न हो...बाबरी मस्जिद गिराने के हीरो के साथ आपसी तालमेल क्यो न हो लेकिन ये टोपी लगी रहनी चाहिए । सियासी जुगत अपनी जगह है ।
तीसरे मोचेॻ की क्या रणनीति है । किस आधार पर जनता को अपनी तरफ खीच रहे है । है कोई मुद्दा...परमाणु डील के विरोध में क्रांग्रेस से अपना नाता तोड़ा था क्या इस बार कांग्रेस का साथ नही निभाएगे । गठबंधन में शामिल नही होकर क्या विपॿ की भूमिका में होगे या संशोधनवाद की तजॻ पर और पाटीॻ से तालमेल करेगे । मुद्दे कुछ भी नही है...सिंगुर का मामला दफन हो चुका है । नैनो गुजरात में तैयार हो रही है॥ममता की गली में बामपंथ की खोज चल रही है...ऐसा ही हाल केरल में भी है। अन्य राज्यो में तो किसान मजदूर हैं ही नही॥फिर ये किस आधार पर जनता से वोट मांग रहे है।
दाल रोटी हर दल की अपने प्रदेश में चल रही है । गठबंधन की राजनीति ने दिल्ली का दरवाजा हर दल को दिखला दिया है । इसमें कोई कमजोर नही है । चार सांसदो को जितवाकर मंत्री का पद आराम से ले सकते है । बस मोल-भाव की कला होनी चाहिए । इसीलिए तो कोई दल किसी तरह का कसर नही छोड़ना चाहती है...यही तो सियासत है ।
बाक युध्द शुरू हो चुका है । कांग्रेस बूढी दिख रही है और भाजपा युवा॥हर कोई अपने को नौजवान दिखाने की जुगत में है॥कोई युवाओ का हृदय सम्राट बनना चाहता है तो कोई हिन्दुओं का हृदय सम्राट । सबके अपने-अपने चादर है जिसमें वो मतदाताओं को गोलबंद कर रखना चाहते है । इस वाकयुध्द में न तो किसी के बोल का कोई मोल है और न ही इसकी कद्र । बस लोगों का दिल जीतना है । अभी रोलर चलने और कानून की हथकड़ी डलवाने में कोई परहेज नही है । चुनाव की ही तो बात है फिर तो एक ही सिक्के के दो भाग होकर रहना है ।

Saturday, April 4, 2009

जनता की सेवा के लिए नेता या अपने जेब भरने के लिए नेता

हम कहां पहुंच गए है शायद हमें खुद पता नही है॥कभी सोचा नही गया था कि राजनीति को इस कदर व्यवसाय में बदल दिया जाएगा॥और इस व्यवसाय में भी इस तरह के व्यवसायी शामिल हो जाएगे जिनके नाम पर इतने सारे जुमॻ और मामले होगे...जिनका नाम हत्या,बलात्कार और देश के ईमानदार अफसरों की मौत में संलिप्त होगा । पैसा कमाना जिसका मुख्य धमॻ-कमॻ हो॥बंदूक जिसका ईमान हो । शायद भगत सिंह ने ही एक बार कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है॥भगत सिंह ने जिस तजॻ पर सत्ता को ंबंदूक की नली से निकलते बतलाया था...क्या उसका सही अथॻ यही है । सच मायने में खुद अगर अपने दिल से सवाल किया जाए कि आज के लोकतंत्र में चुनाव के क्या मायने हैं तो बहुत सारी चीजें सामने आ जाती है । चुनाव लड़ने का मतलब पैसे कमाना भर रह गया है...क्योकि ऐसी भी अब बात नही है कि जनता गलत या सही प्रत्याशी के बारे में समझती नही है । फिर लोकतंत्र को इस तरह से तार-तार किया जा रहा है फिर भी जनता खामोश क्यो है॥और अपने ॿेत्र में उस तरह के प्रत्याशी को मुहतोर जबाब क्यो नही देसबक सिखाने के लिए तो एक वोट ही काफी है फिर इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप निराधार नही लगता है कि यहां से एक ताकतवर या क्रिमिनल नेता चुनाव जीत कर आया है । आखिर इन नेताओं का चुनाव में जीतना कैसे संभव होता है...अपनी ताकत से या जनता के वोट से । अगर अपनी ताकत से तो लोकतंत्र हार रहा है अगर जनता की वोट से तो भी लोकतंत्र कमजोर हुआ है । फिर सवाल यह है कि आखिर कौन सी शक्तियां है जो लोकतंत्र को कमजोर और मजबूत बनाती है॥जो अभी भी अपने होने और न होने का अहसास कराती है। राजनीति का मतलब चुनाव से होता है । ऐसे चुनाव से जिसमें आम जनता अपने हिसाब से नेता का चयन करती है । जनता के आम राय से चयनित नेता जनता के प्रति वफादार होती है । ऐस ेशासन तंत्र का निमाॻण होता है जिसका मतलब जनता का शासन,जनता के द्वारा शासन और जनता के लिए शासन होता है । अब्राहम लिंकन का ये कथन शायद अब हमारे लोकतंत्र की गरिमा को चोट पहुंचाता है॥उसे लहुलुहान करता है । देश का सियासत इस कदर तैयार हो रहा है जिसमें सियासतदान चुनाव जीतने के मकसद से सारी हदों को पार कर जाता है...मजहब होता है चुनाव जीतना और सरकार बनाना । संजय दत्त को आयोग का नोटिस जाता है कि आप चुनाव नही लड़ सकते है । विहार में पप्पु यादव,सूरजभान सिंह और शाहबुद्दीन सरीखे ऐसे नेता है जो संसद की शोभा बढ़ा चुके है और अपना कायॻकाल भी पूरा कर चुके है । लेकिन इस बार के आयोग और न्यायालय के रवैये ने उन्हे चुनाव से दुर रखने का फैसला किया है । और ये नेता अब अपनी किस्मत का आजमाइश अपनी पत्नि के भरोसे कर रहे है उन्हे पता है कि पत्नि भी जीत जाये तो उनके शाही अंदाज और अदालती फरमानों से थोड़ी राहत जरूर मिलेगी और जनता के बीच अपना रसुख भी बना रहेगा । मकसद जनता की सेवा कतई नही है॥जनता की सेवा केवल संसद तक पहुंचने से नही होता है । बिना संसद भवन पहुंचे ही बहुत ऐसे शख्सियत है जो जनता की सेवा कर चुके है और कई पुरस्कर भी जीत चुके है और इतिहास में उनका नाम भी सादर अच्छरों में लिखा गया है॥उनकी निःस्वाथॻ सेवा मिशाल बन गई है । फिर चुनाव के आ जाने से यह सवाल जरूर उठता है कि जो नेता जनता के प्रति वफादार नही वे कैसे चुनाव जीत जाते है॥आखिर जनती ही तो उन्हे चुनती है । विहार का सिवान डाँ राजेन्दॺ प्रसाद के चुनाव ॿेत्र के नाम से जाना जाता था आज बाहुबली शाहबुद्दीन के नाम है...हिन्दुस्तान में मास्को के नाम से मशहूर बलिया लोकसभा ने सूरजभान जैसे प्रत्याशी को जीतकर भिजाया जिस पर सैकड़ो मुकदमें दजॻ है..संजय दत्त सजायाफता रह चुके है और उनका नाम मुम्बई बम विस्फोट जैसे संगीन मामलो में संलिप्त है...पोरबंदर को अब राष्टॺपिता महात्मा गांधी के जन्मस्थान और उनके सत्याग्रह से अधिक माफिया सरगना संतोखबेन जडेजा के नाम से जाना जाता है । चम्पारण भले गांधीजी की कमॻभूमि रही हो आज साधुयादव के काले कारनामो से जाना जाता है । वाराणसी,काशी और अय़ोध्या की धरती अब पवित्र नही रही इससे अधिक अब वह गुंडे और बदमाशो के लिए जाना जाता है इलाहाबाद नेहरू और लोहिया बच्चन के लिए नही बल्कि माफिया सरगना अतीक अहमद के नाम से जाना जाता है...सवाल यह है कि यह स्थिति आखिर कहां से आई है...जनता के अधिकार से या बाहुबली के अधिकार से । वोट देते वक्त हमे ंयही सोचना है क्योकि सूची इतनी भर नही है हकीकत यह है कि ज्यो-ज्यो राजनीति में विचार कमजोर पड़ते गए..अंदरूनी लोकतंत्र ग्याब होता गया और मूल्यो और सिध्दांतों का नेतृत्व हासिये पर चला गया । परिणाम यह हुआ कि राजनीति में आपराधिक तत्वों की भागीदारी और भूमिका बढ़ती गई और एक वगॻ इससे अपना रिस्ता दूर करता चला गया । अंत यहा तक आ पहुंचा कि इसमें ईमानदार लोग दूर-दूर तक दिखाई नही देते । समय के साथ-साथ इसका मतलब भी बदलता गया । आज राजनेता का असली अथॻ बााहुबली होना होता है...जनता का प्रतिनिधि नही... जनता का सेवक तो कतई नही...हमें वोट के वक्त यही सोचना है ।