
मां से इस तरह लिपटू कि बच्चा हो जाऊ
कम से कम बच्चों के होठों के हंसी के खातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना मुझे कि खिलौना हो जाऊ
मशहूर शायर मुनब्बर राना की कलम से ये पंक्तियां निकली है ...राना ने अपने कलम के जरिये मां की ममता को लेकर एक बच्चे की ख्वाहिश को बयां किया है । राना के शब्दों में एक बच्चे की खुशी चंद खिलौने में है जिसमें अपना अक्स देखने के लिए वे खुद को मिट्टी में मिलाने की दुआ कर रहे है । ऐसी मिट्टी जिसे कोई मेहनतकश आकार देगा । कहने का तात्पयॻ यह है कि वह बच्चा बड़ा नही होना चाहता है...मां के गोद में ही खेलना चाहता है...मां से चंदा मामा की गीत सुनना चाहता है....और खिलौने में सिमटकर रहना चाहता है । लेकिन मनोरंजन चैनलों को शायद यह मंजूर नही है...लगता तो ऐसा है कि इन चैनलों ने बच्चे के बचपने को उससे छीन लिया है ....और हमारे दौर के बच्चे को बक्त से पहले बड़ा कर दिया है । उनका मचलता बचपन और खिलता मासूमियत टीआरपी के हवस में खोता जा रहा है....अब वे बच्चे नही है बल्कि कमाई का एक जरिया है....जिन्हे कामयाबी और निराशा का भार इसी उम्र में अपने कंधों पर लेकर चल पड़ना है । अब बचपन के कंधे कमजोर नही होते...उसे तो बुलंदी पर चढ़ने का भार बचपन में ही मिल जाता है...।
बात अपने अनुभव से ले रहा हूं । उस दिन रात के ग्यारह बजे हमारी उंगलिया रिमोट पर किसी पसंदीदा चैनल को ढ़ूढ़ रहा था कि अचानक मेरी उंगली एक मनोरंजन चैनल पर जा ठहरी । कुछ बच्चे दशॻकों को हंसाने की कोशिश कर रहे थे । इसमें एक ग्यारह साल की लड़की के जरिए काॅमेडी परोसी जा रही थी...बच्ची के कामेडि परोसने का नजरिया ऐसा था कि मै अपना पसंदीदा चैनल देखना भूल गया । बच्ची ने कहा कि हिन्दी फिल्म का एक डाॅयलाग आम है मै जरा गौर से सुनने लगा । बच्ची ने कहा कि सुनो मै तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं । बच्ची ने आगे कहा कि निन्यानवे प्रतिशत हीरोइने ये डाॅयलोग शादी से पहले बोलती है । मै हतप्रभ था पर दशॻक और जज उस लड़की की बातो से लोटपोट हो रहे थे । तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बमुश्किल से एक नौ साल की लड़की स्टेज पर आई । उसने शोले फिल्म के एक डाॅयलांग की याद को ताजा करते हुए बोली कि हंगल साहब ने अपने एक डायलाग में कहा कि काश मेरे पास एक और बेटा होता जिससे मै रामगढ़ पर कुबाॻन होने के लिए दे देता ....इस बात को सुनकर रामगढ़ की महिलाओं ने हंगल साहब को कभी अपने घर नही बुलाने का फैसला लिया । काॅंमेडि के इस नजरिए को देखकर मै हैरान था ।
सिलसिला यही नही थमा.....सात साल की एक लड़की ने काॅमेडि को ऐसे अंदाज में पेश किया कि हमारी संस्कृति तार-तार हो गई....हमने जिस बचपन को बचपन समझ रखा था वह तो हमसे भी बड़ा निकला । हमने कभी सोचा नही था कि सात आठ साल की ये बच्चियां कभी मां बनने की भूमिका निभाएगी तो कभी अश्लील दृश्य के लिए अपने आप को तैयार करगी । डांस करना तो एक कला है लेकिन उसके माध्मम से अश्लीलता को परोसना इन बच्चियों के लिए कहां तक उचित है । गांव में तो छह सात साल तक की लड़कियां तो ठीक से स्कूल जाना शुरू नही करती है और न ही अपनी मां से अकेले होना चाहती है....फिर इस तरीके से स्किप्ट तैयार करना और उसे लाइट कैमरा एक्शन के जरिए दशॻकों तक परोसना ंनामुमकिन है लेकिन शहरी संस्कृति ने सब कुछ सही कर दिया है....अब तो शहर की लड़कियां पैदा होते ही बड़ी हो जाती है और सात आठ साल में ही सतरह अठारह साल की लड़कियों की तरह तामझाम और भूमिकाओं में नज़र आने लगी है ।
हमें बुलंदियों से कोई गुरेज नही है...हमारी तो तमन्ना है कि लड़कियां दस साल की दहलीज तक पहुंचते ही कल्पना चावला और सुनीता के रास्ते पर चल निकले । वैसा बनने के नक्शे कदम पर चले या उस उम्र तक वैसी हो भी जाये ...देश का नाम भी काफी हद तक रौशन होगा और हम भी उसे आगे बढ़ने के लिए तैयार रहेगे ...लेकिन यह तरक्की का कैसा जरिया है जो तरक्की पाने के लिए उस उम्र को खोता जा रहा है जिससे उम्र में फिर से लौटने की ख़्वाहिश अक्सर अपने साथियों और अन्य लोगों से सुनता रहता है...जो बचपन के बिताये पल को बयां करते नही थकते है । पर यहां तो बचपन को लूटा जा रहा है...उसे तार-तार किया जा रहा है जिसे खोने का गम न तो उन दुधमुंहे बच्चे-बच्चियों को है और न ही उनके मां-बाप को । आखिर क्या उसके खोतेे बचपन को लौटाया जा सकता है
मसलन बात यहां आकर अटक जाती है कि इसके लिए जिम्मेवार कौन हैं...वह नाबालिग बच्चे-बच्चिया या इनके जरिए काॅमेडी कायॻक्रम में अपने बच्चे की कामेडी पर दांत निपोरते उसके मां-बाप । आखिर किसी को तो यह जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी । सबसे बड़ी बात तो उस उजार बचपन का है जिसे छीना जा रहा है .... उन बुलंदियों को चूमने के लिए जिस बुलंदी को उसके मां-बाप तमाम उम्र गुजारने के बाबजूद हासिल नही कर पाए और जो अपने बच्चे के जरिए सब कुछ हासिल करना चाहते है । लेकिन उन्हे यह नही पता कि उसके बुलंदियो से क्या छीनते जा रहे है । आखिर इन बच्चों को तैयार करना ...स्किप्ट याद कराना और पदॻ पर नामचीन कलाकारों के सामने परोसना ...क्या इस उम्र के लिए सही है । सबसे बड़ी बात तो बच्चों के सर पर दिखने वाला टेशन होता है जो उसके नाकामी के बाद साफ झलकता है । इन चैनलों को देखने वाले इस बात को जरूर गौर से देखे होगे या महसूस किये होगे । आखिर इस बच्चो को इस उम्र में ही इतनी बड़ा बोझ देने से क्या वे सचमुच बड़े हो जाएगे या एक बार कमजोर कंधे नाकामियों के दलदल में चले जाएगे.... मानसिक तनाव में बाद की जिन्दगी जीयेगे । समय के साथ जरूरी नही है कि सभी बच्चे को सफलता मिले फिर वैसी स्थिति में वे क्या करेगे । बाल अधिकार कानून समेत हम तमाम लोगों को इस और ध्यान देने और गंभीर होने की ज़रूरत है । ताकि बचपन को बचाया जा सके ।