
लोकतंत्र को वोटतंत्र से लेकर नोटतंत्र में बदलने की कहानी भी काबिले तारीफ है । जब देश में पहली बार आम चुनाव 1952 में हुए तो वह पल भारतीय लोकतंत्र के लिए अतिविशिष्ट था । उस समय मतपत्र पर न तो उम्मीदवारों के नाम होते थे और न ही चुनाव में भाग लेनेवाले पाटिॻयों के चुनाव चिन्ह मतदाताओं को मिलनेवाला मतपत्र कागज का एक टुकड़ा होता था । मतदाता को इसे अपनी पसंद के उम्मीदवार के बक्से में डालना होता था । आडवाणी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि कुछ उम्मीदवारों के एजेंट पोलिंग बूथ के बाहर खड़े होकर मतदाताओं से कहते थे अपना वोट बक्से में मत डालना । उसे जेब में डालकर हमार पास ले आओं उसके बदले हम तुम्हे एक रूपये का नोट देगें । बीस -पचीस ऐसे मतपत्र जमा हो जाने पर एजेंट का कोई आदमी अंदर जाकर अरने उम्मीदवार की पेटी में डाल देता था । और चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती थी । इस बहस का जिक्र आडवाणी ने अपनी पुस्तक माई कंटीॺ माई लाइफ मे ंकिया है । सवाल है कि इस तरह की बहस से पीएम इन वेटिंग लोगो में क्या संदेश भेजना चाहते है । फिर बासठ सालों से हमार देश में लोकतंत्र होने का जो एहसास आम भारतीय को है उसका मूलमंत्र यही है फिर चुनाव में इतने पैसे खचॻ करने की क्या आवश्यकता है । संविधान विशेषॾ से जब मैने बात की तो उसने बताया कि चुनाव में जनता की अधिक से अधिक भागीदारी और जनता की इच्छा से चुनी गई सरकार ही सही लोकतंत्र होने की निशानी है । तो मेरा सवाल है कि क्या हम उस लोकतंत्र पर खड़े उतरे है ।
नोट देकर वोट खरीदना किसी से छुपा नही है॥अंतर केवल हैसियत की है उसी के हिसाब से पैसे दिये जाते है । और सीधी जनता के वोट को हड़प लिया जाता है॥जाति,वगॻ और धमॻ इसमें संजीवनी की तरह काम करता है । यह काम तो निचले स्तर पर होता है थोड़ा उपर जाने पर नेता किसी दल को समथॻन देने के लिए किस कदर सौदेवाजी करते है किसी से छुपा नही है । संसद में रूपये की गडडी बांटने का मामला अभी ताजा है फिर हम किस तरह के लोकतंत्र की नुमाइंदगी करते है । सवाल तो कई है॥आखिर इस तरह के लोकतंत्र के क्या मायने है । कही अपराधी तो कही सजायाफ्ता आखिर लोकतंत्र के यही मायने रह गये है...वोट देने वक्त हमे यही सोचना है ।