
यह लोकतंत्र की अजीबोगरीब स्थिति है कि एक तरफ पप्पू को पप्पू नही बनने देने से बचाने के लिए अभियान चल रहा है तो दूसरी और हर बार के चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम होता जा रहा है । आम जनता में मतदान के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है । भले ही युवाओं को रिझाने के लिए युवा नेता आगे आ रहे है लेकिन दूसरी तरफ युवा है जो पप्पू ही बने रहना चाहते है । लोकसभा चुनाव को ही आकलन के तौर पर ले तो पता चलता है कि 13 वी लोकसभा चुनावों में 60 प्रतिशत से कम लोगो ने मताधिकार का प्रयोग किया इनमें महिलाओं ने कुल वोटों का 55।64 प्रतिशत तथा पुरूषों ने 63।97 प्रतिशत मतदान किया था । उसी तरह 14वीं लोकसभा की स्थिति कमोवेश इसी तरह है जहां केवल 58।07 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने वोट का इस्तेमाल किया । इस बार के लोकसभा चुनाव में भी 55 से 60 फीसदी मतदाता ही उम्मीदवारों के किस्मत का फैसला करने जा रहे है । हाल में ही विधानसभा चुनाव को ही लिया जाय और उसमें भी अगर राष्टीॺय राजधानी दिल्ली की बात करे तो तथ्य चौकाने वाले है । दिल्ली का दॿिणी इलाका सबसे अधिक पढ़ा लिखा और उच्च वगॻ का है लेकिन पिछले तीन चुनावों मे यहां 35 से 40 प्रतिशत तक ही मतदान हुआ । फिर पप्पू बनने का अभियान किसके लिए चलाया जा रहा है ...जो जागरूक है ,सक्रिय है या जिनके ऊपर जागरूक करने की जिम्मेवारी है ।
पप्पू बनने का एक पहलू यह भी है कि अगर पप्पू विॾापन से प्रभावित होकर वोट देने के लिए तैयार होता है तो वोट किसे देगा । देश में हालात इस कदर खराब हो चुके है कि नेताओं और अपराधियों में फकॻ करना मुश्किल हो गया है । उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली विधानसभा को ही ले तो एक सवेॻ के मुताबिक 39 फीीसदी विधायक दागी है यानि राजधानी दिल्ली के विधानसभा में 91 विधायकों की पृष्ठभूमि आपराधिक है । आम चुनाव की स्थिति भी यही है । 14 वी लोकसभा के चुनाव में हर पांचवे में से एक सांसद की छवि आपराधिक थी । लगभग 21 प्रतिशत भाजपा के और 16 प्रतिशत कांग्रेस उम्मीदवारों पर क्रिमिनल केस दजॻ थे । 15वी लोकसभा में तय उम्मीदवारों की स्थिति भी यही है । 543 सांसदों में से 70 सांसदों के पर मामला दजॻ है उसमें से 40 सांसदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले है । फिर ऐसी स्थिति मे पप्पू तैयार तो हो गया लेकिन वोट किसे देगा ।
ऐसा नही है कि पप्पू को वोट की अहमियत नही मालूम । लेकिन सच यह है कि पप्पू पप्पू बनने से पहले सियासी पाटिॻयों के प्रचार और एजेण्डे को गौर से निहारता है । पप्पू देखता है कि सभी राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए लुभावने वायदे करने और कभी न पूरा होनेवाले नारे को गमॻजोशी से उछालता है । जिसमें सभी दल एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में लगे हुए है । कोई भी पाटी आम मेहनतकश जनता की जिन्दगी से जुड़े रोजगार,शिॿा ,स्वास्थय जैसी बुनियादी मुद्दों को नही उठा रहा है । पानी बिजली और सड़क का मुद्दा तो कब का ग्याब हो चुका है । आसमान छूती मंहगाई का मुद्दा विपॿी दलों ने भी उठाने की कोशिश नही की ....मुददे की जगह बकवास ने अपना स्थान बना लिया । ऐसी स्थिति में पप्पू उपापोह की स्थिति में है कि वह क्या करे आखिर पप्पू वोट किसे दे ।
मंहगाई जब आसमान छू रही है तो मंहगाई चुनावी मुद्दा क्यो नही बन पा रहा है । प्याज की बढ़ती कीमतोंं ने दिल्ली विधानसभा को ले उड़ा था फिर अभी तो सभी चीज की कीमत मंहगी है लेकिन यह तो मुददे से गायब है । एक तरफ अजुॻन सेन गुप्त कमेटी की रिपोटॻ है जिसमें भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से गुजारा कर रही है,सोचने की बात यह है कि आसमान छूती मंहगाई में वह आबादी क्या खा रही होगी । दाल और सब्जी तो पहले ही गरीबों की थाली से गायब हो चुकी है और जो बचा है वह भी ग्याब होने की स्थिति में है । सवाल यह है कि फिर पेट की आग चुनावी मुद्दा क्यों नही बनता । आखिर पप्पू क्या करे ।
देश की स्थिति यह है कि एक तबका शेखी से पप्पू बने रहना चाहता है । यह वह तबका है जिसे मतदान या लोकतंत्र के महापवॻ से कोई मतलब नही है । वोट डालने डाॅक्टर, इंजीनियर ,पत्रकार या रईस उद्योगपति नही जाते है । उन्हे वोट देने जाने के वक्त कड़ी धूप लगती है । वोट डालने वही वगॻ जाता है जो गरीब है कमजोर है॥झुग्गी झोपड़ी जैसी मलीन बस्तियों में रहता है...और जहरीला पानी पीता है । लेकिन देश में विकास का माॅडल उन रईसो के लिए बनता है जिसके पास अपना आशियाना है । सड़के भी वही तक बनती है ताकि उनकी लम्बी गाड़ी उस पर फिसलन महसूस करे । विकास की पटरी वही जाकर समाप्त हो जाती है और 80 प्रतिशत जनता सड़क पर ही छूट जाती है ऐसी स्थिति में पप्पू को पप्पू बनना ही ज्यादा अच्छा लगता है ।
इस चुनावी उठापटक में एक चीज सामने आयी कि जनता का वोट देने में कोई विश्वास नही रह गया है । वह सोचने लगी है कि जीते कोई भी उसका किस्मत नही बदलने वाला है । उसका पेट कमाने से ही भरेगा, जो उम्मीदवार जीतेगा वह अपनी तिजोौरिया भरेगा फिर हम उसके लिए वोट डालने क्यों जाएं । हकीकत में वोट डालने का जुनून आस्था या किसी पाटीॻ को जीताने का मकसद बहाने कम लोगो को होता है । कुछ गरीब आबादी अपना पेट बेचकर जरूर वोोट डालता है उसके लिए यह महीना सीज़न कहलाता है कम से कम जीने के लिए नही तो पीने के लिए जरूर कुछ मिल जाता है । ऐसे में वोट डालने का क्या मकसद रह जाता है और किस मकसद से पप्पू केम्पेन चलाया जाता है । फिलहाल पप्पू यही सोच रहा है ।