Monday, July 27, 2009

राखी स्वयंवर में मुहब्बत का मिसड कोल

स्वयंवर की कहानी से हमारा इतिहास भरा पड़ा है । रामायण और महाभारत की कहानियों में स्वयंवर की चचाॻ है । रामायण में राजा जनक ने सीता का वर चुनने के लिए स्वयंवर रचा था और इसी तरह का पसंग महाभारत में भी है जिसमें दोॺपदी की शादी के लिए लॿ्य को बेधने जैसे प्रसंग सीरियल के माध्यम से और किताबों के जरिये लोगो तक परोसा गया है । टीवी सीरियल के माध्यम से ऐसा ही एक रियलटी शो एनडीटीवी इमेजिन पर राखी का स्वयंवर के नाम से दिखलाया जा रहा है ।

धमॻ की समझ कम रखता हूं । कहने में थोड़ी झिझक जरूर है । क्योकि अख़वारों के माध्यम से यह पढ़ने को मिलता है कि आज की युवा पीढ़ी को धमॻ कीें जानकारी कम है और वे आधुनिकता के इस दौर में धमॻ से किनारा कर चलते है । या धमॻ को मानने के लिए तैयार नही है । धामिॻक कथाएं या धामिॻक अनुष्ठान उसे समझ से पड़े लगता है । या कहे कि वे सोचते है कि धमॻ की बाते सुनने या मानने के लिए उनके पास ज्यादा वक्त नही है । जो भी हो इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता है ।

सीता विवाह के लिए धनुष को तोड़ना कितना मायने रखता था मुझे नही मालूम । धनुष को तोड़ने के जरिये वर के किस गुण को नापा गया था ये भी नही मालूम । आज तो वर ढ़ूढ़ने के वक्त लड़के के शिॿा परिवार और खानदान की बात होती है । उस समय का जो पैमाना था उस पैमाने में जिस कौशल को देखा जाता था यह एक अलग विचार का विषय है । शायद लड़के की अधिकता हुई होगी या फिर पहले से ही फिक्स होता होगा कि वही धनुष उठा सकता है । और वधु उसके गले में माला डालेगी ।

यही कहानी महाभारत में दोॺपदी के स्वंयवर में देखने को मिलता है । जो लड़का तिरंदाज होगा और मछली के आंख को बेध देगा उसी के गले में दोॺपदी वर माला डालेगी । यहां भी कुछ फिक्स ही नजर आता है । तीरंदाज और भी थे । कणॻ जैसे महारथी भी थे लेकिन उन्हे मौका नही मिला । अजुॻन ने यह कर दिखलाया और दोॺपदी बिना मन से पांच पांडवों की पटरानी बन गई । भला यह भी कोई स्वंयवर है मछली के आंख को बेधे अजुॻन और पटरानी बनी पांचों भाई की ।

यही कहानी राखी स्वयंवर में भी दिखलाया जा रहा है ।हां यहां पैमाना जरूर बदल गया है । राखी के पीछे लड़कों की भरमार है । हर किसी से रिस्ता तय होता है और अंत में जाकर रिश्ता टूट जाता है । या लड़कियों के शब्द में कहें तो राखी हर लड़के की बेइज्जती कर उसे ठुकरा देता है । भला ये भी क्या स्वयंवर हैं ।ये ही कहा जाता है कि लड़के भी राखी के साथ खेल खेलने ही आता है ।भला राखी क्या खे़लने की चीज है । जो भी आता है टांके डालकर चला जाता है । राखी का अंदाज भी अलग और लड़के का अंदाज भी जुदा-जुदा

रियल्टी शो चल रहा है । संस्कृति तार तार हो रही है । चैनल की कमाई हो रही है । और संस्कृति की लुटिया डुबोई जा रही है । राखी को पैसे मिल रहे है उसे कोई गम नही है । उसे तो लुटने के ही पैसे मिल रहे है । पैसे के पीछे तहजीव और रवायत को कौन देख रहा है ।वही हाल चैनलों का भी है । दशॻक के सामने अश्लील परोसा जा रहा है और मजा भी आ रहा है । देर मत कीजिए । राखी को आप भी मुहब्बत का मिसड काॅल मार सकते है ।

Wednesday, July 15, 2009

आयोग की विश्वसनीयता से उ‌ठते सवाल

लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोटॻ सरकार को सौप दी । रिपोटॻ में जो भी लिखा हो । यह तो संसद पटल पर आने के बाद ही पता चलेगा । अभी तो यही चचाॻ है कि आखिर जस्टिस लिब्राहन ने अपनी रिपोटॻ में किसे बक्शा है और किसे राहत दिया है । राजनीतक सरगमीॻ भी तेज हो चली है । रिपोटॻ के आने और न आने के समय पर भी सवाल उठ रहे है । आखिर बाबरी मस्जिद बिध्वंस के बाद जस्टिस लिब्राहन को यह जिम्मेदारी सौपी गई थी कि वे मामले की सच्चाई को बाहर करे । रिपोटॻ आई और इतने दिनों के बाद आई यही बड़ा सवाल है । जिसके तह में जाने की जरूरत है । और सवाल एक बड़ा सवाल बनकर उभर रही है । आखिर लिब्राहन ने इतने वक्त क्यो लगाएं

लिब्राहन आयोग के मूल में जाने से 6 दिसम्बर 1992 की घटना ताजा हो जाती है । भाजपा और उसके सहयोगी विहिप,बजरंग दल ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया । घटनाएं कैसे आगे बढ़ी और कहां तक पहुंच गई । इसका अंदेशा सभी को था । कल्याण सिंह राज्य के मुख्यमंत्री थे । जो बाबरी मस्जिद बिध्वंस में लालकृष्ण आडवाणी और उमा भारती के साथ अहम भूमिका में थे । उमा भारती आज भी उस दिन की घटना में स्वयं को जिम्मेवार मानती है और आज भी फांसी पर लटकने को तैयार है । भले ही आज कोई उन्हे फांसी पर लटकाने में रूचि नही ले रहा है । केन्दॺ में नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे । इतनी गहरी नींद में सोये थे कि पता नही चला । मस्जिद गिरा दी गई । फिलहाल 6 दिसम्बर के भीतर ज्यादा झांकने की जरूरत नही है । घटनाएं किसी से छिपी नही है ।ी जानकारी सभी को है । कौन दोषी है कौन नही है देश की जनता को मालूम है । लेकिन सवाल तो आयोग से शुरू होता है ।

6 दिसम्बर को मस्जिद ढ़ाह दी गई । 16 दिसम्बर को देश के प्रधानमंत्री ने बाबरी मस्जिद बिध्वंस को लेकर एक जांच आयोग गठित की जिसे तीन महीने के भीतर अपना फैसला सुनाना था । लेकिन सवाल यहां है कि आखिर आयोग फैसला क्यो नही सुना पाया। आयोग का 48 बार कायॻकाल बढ़ा लगभग 9 करोड़ रूपये खचॻ हुए । देश के करोड़ो लोगो का दिल आयोग की रिपोटॻ पर टिका रहा । फिर रिपोटॻ आने में इतने साल लग गए तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है । सरकार सरकारी महकमा या या सरकार की गठित आयोग ?

अपने देश में आयोग बैठाने का एक सिलसिला रहा है । इंदिरा गांधी की हत्या हुई जांच आयोग बैठा दिया गया । हत्या के बाद देश भर में सिक्ख दंगे हुए । दस-दस आयोग गठित किए गए । मारवाह आयोग ,आहुजा आयोग न जाने कितने आयोग का फैसला आना शेष ही रह गया लेकिन आखिरकार क्या हुआ । उस आयोग का क्या हुआ जिससे सिक्ख दंगो में मारे गए लोगो के परिवार वालों को न्याय मिलना था । आयोग या सरकार को नही लगता है कि इसके बाद भी लोगो की आस इस पर टिकी हुई है । ददॻ अभी भी जिन्दा है । टीस अभी भी बाकी है । जिसका नजारा देखने को मिलता भी है । अपने को खोने का गम किसे नही है । आयोग तो सुकून देने के लिए गठित हुआ है । आस तो वहा से भी खत्म हो चुकी है ।

राजीव गांधी की हत्या के बाद जैन आयोग बना, कितने साल में फैसले आए । और फैसले के बाद उस फैसले पर कितना अमल हुआ। न्याय मिला दोषियो को सजा मिली । नही मिली तो जिम्मेदार कौन ? आज भी लोगो को इसका इंतजार है । अगर आयोग गठित हो जाता है फैसले आ जाते है अमल नही होता है । फिर ऐसे आयोग की क्या प्रासंगिकता है । यही सवाल आज लिब्राहन आयोग के भी सामने है ? जिसका जबाब जस्टिस लिब्राहन को अवश्य देना चाहिए।

गुजरात में 27 फरवरी 2002 को गोधरा कांड में मारे गए लोगो को न्याय दिलाने के लिए ॽीकृष्ण आयोग का गठन किया गया । उस आयोग का क्या हुआ । उसके बाद नानावती आयोग भी गठित हुआ उसका क्या हुआ । गुजरात में हुए इस हत्याकांड में मारे गए लोगो को न्याय अभी तक मिला । कोटॻ अपने फैसले में इसकी सुनवाई गुजरात में करा रही है । फिर उस फैसले में क्या आएगा शायद सभी को पता है ।ाआपको नही लगता है कि इस तरह के आयोग को गठित किये जाने के बाद एक आयोग इसकी प्रासंगिकता पर भी उठाना चाहिए जो यह जांच करे कि आयोग ्अपना फैसला क्यो नही सुना पाता है ।

17 साल के बाद आये फैसले को आप कितना उचित मानते है । आपको नही लगता है कि यह देश की जनता के साथ यह रिपोटॻ एक छलाबा है । सवाल यही खत्म नही होता है । आयोग को इतने कायॻकाल बढा़ने की अनुमित किसने दी । अगर आयोग ने अपनी रिपोटॻ तीन महीने में नही दे पाई तो इसके लिए अलग से आयोग का गठन भी किया जा सकता था । फिर लिब्राहन पर ही विश्वास क्यो रखा गया । यही सवाल आयोग और व्यवस्था से भी उठता है । सतरह साल तक दिल थाम कर अपने न्याय की आस में बैठे लोगो के ददॻ को न ही सरकार ने समझा और न ही आयोग । तभी तो विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है ।

Wednesday, July 1, 2009

मानसून की पहली बारिस

सोमवार को जब बदरा दिल्ली पहुंची तो लोग भीगने के लिए भाग निकले । कुछ ने इंडिया गेट की और रूख किया तो कुछ ने मदमस्त मौसम में राजपथ पर भीगीं आनंद लेने उतर आएं । लेकिन मौसम का यह मदमस्त खेल कुछ देर तक ही चला । बदरा अपने धर चली गई हां मौसम सुहाना जरूर बना कर चली गयी । लोगो ने एक बार फिर इंतजार के लिए दिल थाम लिया ।

पहली घमर की बारिस में लोगो को लगा कि यह तो केवल इंडिया गेट पर ही बरसी तो लोगो के दिल में बदरा के लिए काफी शिकायते भी रही । किसी ने मानसून को कोसा तो किसी ने किसी ने बिन मानसून की दस्तक के बारिस की दुहाई दी । लेकिन यह दुहाई और बदमिजाजी की शिकायत कुछ घंटे ही रही । जब दस पन्दॺह घंटे के बाद ही दिल्ली में मानसून ने दस्तक दे दी ।

मानसून के आते ही दिल्ली और एनसीआर में काले बादल घुमड़ने लगे,तेज हवाएं जोर देकर चलने लगी ,और झमाझम बारिश होने लगी । मंगलवार के दिन जब सुवह ने आंखे खोली तो झमाझम बारिश और ठंढ़ी हवाओं ने उनका खुलकर स्वागत किया । फिर खुशनुमा बन गया था । लोगो को लगा कि मानसून की पहली बारिस ही बहार लेकर आयी है ।

दिन खुली तो लोग एक बार फिर गमीॻ से बेहाल रहे । धूप तो कम खिली लेकिन बढ़ती उमस ने एक बार फिर मन बेहाल कर दिया । उस तपस से ज्यादा ही हाल बेहाल हो गया । चाय की केन्टिन और पाकोॻ की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही रही । एसी ने मानो कुलर की तरह काम करना शुरू कर दिया । पंखे वाले के लिए तो बात ही निराली रही । गांव के हाथ के पंखे याद आने लगे । इस गमीॻ में गांव के पेड़ तले व्यतीत होनेवाला जीवन ही ज्यादा बेहतर था ।

शाम हुई तो दैनिक गति की तरह फिजाओं ने एक बार फिर रंग बदला । तेज हवाएं चली काली घटाएं उमरने लगी । बारिश बरसने लगी और कुछ इलाकों में तो अच्छी बरस ही गई । मौसम की फिजा बदली तो धरती की प्यास भी बुझी । यही बारिस की बौछार से गांव में किसान खेत की और चल पड़े । धान की खेती की आस एक बार फिर जगी । शहर में लोग गमीॻ से राहत मिलते ही सवेरे ही सो गए । सुवह आंखे खुली तो सबकुछ सुहाना सा था ।

मानसून की पहली फुहार तो झड़ी लेकिन कुछ बदनसीब ऐसे थे जिनके लिए उसने आते-आते बहुत देर कर दी । राजधानी की सड़कों पर कई अभागे लोगो की लाशे मिली । न चोट के निशान न किसी तरह की थकान । फिर लोगो को नही पता कि आखिर इनलोगों ने आंखे क्यो मूंदी । अनुमान यही है कि ये बेचारे गमीॻ के सबसे बुरे दौर का मुकाबला नही कर पाएं । जरूर ये आधा पेट भूखे ,बीमार और बेहद गरीब लोग थे । जिन्हे रास्ते में मुफ्त पानी पिलाने वाली प्याऊ नही मिली । जिन्हे किसी भंडारे का अन्न प्रसाद के रूप में नही मिला । फिर ये अपने अधिकार की मांग करने भी किसी के पास नही जानेवाले है । सच यह है कि उनकी खामोश मौत में भी शोर है ।
शोर है कि आज सरकार सौ दिन के अपने एजेंडे में क्या-क्या पास करगी । वित्त मंत्री के पिटारे में क्या-क्या बंद है । लेकिन यहां तो गमीॻ को सहने की ॿमता है और न ही मानसून की पहली बूंद हलक तक पहुंचने की आशा है । फिर यहां शोर किस बात का है । मुझे नही मालूम कि इंडिया गेट की मौसम की फुहार से मैं कहां पहुंच गया

Saturday, June 6, 2009

प्रतिभा अपना स्थान खुद तलाश लेती है

बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं...बच्चे के भविष्य बनने से न केवल देश बल्रल्कि एक परिवार,एक समाज तथा एक बेहतर भविष्य की संभावनाएं भी बन जाती है...एक बेहतर कल की बुनियाद के सहारे एक बेहतर इमारत की गुंजाइंश होती है..यही वजह है कि बच्चों के भविष्य को सवारने के लिए माता-पिता किसी तरह का समझौता नही करना चाहते है...खासकर शिॿा के नाम पर तो किसी तरह के समझौते करना तो बेहद ही मुश्किल हो जाता है । प्राइवेट या सरकारी किसी स्कूल में बच्चे का एडमिशन महत्वपूणॻ हो जाता है ।

बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ाई करे या प्राइवेट स्कूल में यह ज्यादा मायने रखने लगी है । इसके पीछे गुणवत्ता भी पीछे छुटने लगी है । एक तरफ खूबसूरत इमारत,चमचमाती दूधिया रौशनी में सुसज्जित कमरे,शानदार फऩीॻशिंग या कहे कि मूलभूत सुविधा से भी अधिक व्यवस्था है तो दूसरी और सरकार की मूलभूत व्यवस्थाएं है जो बच्चे के बेहतर गुणवत्ता के लिए किसी मायने में कम नही है । फिर भी हमारे देश में बढ़ रहे अभिजात वगॻ के लिए प्राइवेट स्कूल में बच्चे का एडमिशन कराना एक गौरव की बात है । इसमें वे अपनी शान भी समझते है...और रईसी का लेप भी इसमें मिला होता है । यही तो वह व्यवस्था है जो एक देश में दो भारत की कल्पना को उभारता है
लेकिन इस बार के नतीजे ने उन होसले को तोड़ा है कि केवल प्राइवेट संस्थान के बच्चे या ऊंची अभिजात वगॻ के सुख-सुविधा के धनी बच्चे ही अच्छे अंक हासिल कर सकते है । बाकी सब तो केवल पढ़ाई करने के नाम पर पढ़ाई करते है...लोग भी यह समझने लगे थे कि अच्छी गुणवत्ता तो केवल प्राइवेट विद्यालय में मिलती है । लेकिन इस बार के परिणाम ने उस मिथक को जरूर तोड़ा है और सरकारी विद्यालय के परिणाम ने प्राइवेट स्कूल को आईना दिखा दिया है ।

रांची के संजीत महतो की कहानी उन बच्चे के लिए काफी है । हजारीबाग के विद्यालय में रसोई का काम करके पढ़ाई भी जारी रखना संजीत के लिए कम आसान नही रहा । आजकल तो यही देखा जा रहा है कि पान की दुकान से अपना पेट गुजारा करनेवाले के बच्चे मेडिकल की परीॿा में टाॅप करते है और अपने पेट काटकर बच्चों की पढ़ाई में पैसा लगानेवाले लोगो के बच्चे अपना नाम रौशन करते है । फिर यह तो माना ही जाना चाहिए कि गुणवत्ता के नाम पर किसी तरह का भेदभाव करना बेकार है ।

विद्या के मन्दिर में प्रतिभा ही मुख्य पैमाना होता है । व्यवस्था भले ही सरकारी या प्राइवेट का ताना बाना देकर दोनो के बीच दूरी बनाने का काम करे लेकिन हकीकत यह है कि प्रतिभा वहीं छलकती है जहां प्रतिभान छात्रों का जमधट हो...सच यह है कि प्रतिभा अपना स्थान खुद तलाश लेती है ।

Monday, May 11, 2009

पप्पू वोट देकर क्या करेगा


आंखे खुली तो एफ एम रेडियो की गूंज कानों तक पहुंची । सुवह की फूटती किरणों के साथ पप्पू शोर मचाये हुए था ,इस बार पप्पू नही बनना है ॥वोट देने अवश्य जाएं नही तो पप्पू बन जाओगे । दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय से ही ए।आर।रहमान की धुन पर इस विॾापन को दिल्ली की सड़को ,रेडियों,सिनेमाघर में प्रसारित किया गया था । उसके बाद से तो इस अभियान ने जोर पकड़ ली , ने केवल रेडियो या विॾापन के माध्यम से बल्कि आम जनता के बीच भी इस अभियान को प्रचार-प्रसार के माधयम से आगे बढ़ाया गया खास बात तो यह रही कि इसमें कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी हिस्सा लिया और लोगो को पप्पू बनने से बचने के गुर सिखाता रहा । अब जबकि 15वी लोकसभा के चुनाव दिल्ली में हो रहे है पप्पू प्रचार यहां भी पीछे नही है । लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आखिर चुनाव के वक्त ही पप्पू क्यो नज़र आता है...उससे भी बड़ा सवाल यह कि आखिर पप्पू वोट देकर क्या करेगा ?

यह लोकतंत्र की अजीबोगरीब स्थिति है कि एक तरफ पप्पू को पप्पू नही बनने देने से बचाने के लिए अभियान चल रहा है तो दूसरी और हर बार के चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम होता जा रहा है । आम जनता में मतदान के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है । भले ही युवाओं को रिझाने के लिए युवा नेता आगे आ रहे है लेकिन दूसरी तरफ युवा है जो पप्पू ही बने रहना चाहते है । लोकसभा चुनाव को ही आकलन के तौर पर ले तो पता चलता है कि 13 वी लोकसभा चुनावों में 60 प्रतिशत से कम लोगो ने मताधिकार का प्रयोग किया इनमें महिलाओं ने कुल वोटों का 55।64 प्रतिशत तथा पुरूषों ने 63।97 प्रतिशत मतदान किया था । उसी तरह 14वीं लोकसभा की स्थिति कमोवेश इसी तरह है जहां केवल 58।07 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने वोट का इस्तेमाल किया । इस बार के लोकसभा चुनाव में भी 55 से 60 फीसदी मतदाता ही उम्मीदवारों के किस्मत का फैसला करने जा रहे है । हाल में ही विधानसभा चुनाव को ही लिया जाय और उसमें भी अगर राष्टीॺय राजधानी दिल्ली की बात करे तो तथ्य चौकाने वाले है । दिल्ली का दॿिणी इलाका सबसे अधिक पढ़ा लिखा और उच्च वगॻ का है लेकिन पिछले तीन चुनावों मे यहां 35 से 40 प्रतिशत तक ही मतदान हुआ । फिर पप्पू बनने का अभियान किसके लिए चलाया जा रहा है ...जो जागरूक है ,सक्रिय है या जिनके ऊपर जागरूक करने की जिम्मेवारी है ।

पप्पू बनने का एक पहलू यह भी है कि अगर पप्पू विॾापन से प्रभावित होकर वोट देने के लिए तैयार होता है तो वोट किसे देगा । देश में हालात इस कदर खराब हो चुके है कि नेताओं और अपराधियों में फकॻ करना मुश्किल हो गया है । उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली विधानसभा को ही ले तो एक सवेॻ के मुताबिक 39 फीीसदी विधायक दागी है यानि राजधानी दिल्ली के विधानसभा में 91 विधायकों की पृष्ठभूमि आपराधिक है । आम चुनाव की स्थिति भी यही है । 14 वी लोकसभा के चुनाव में हर पांचवे में से एक सांसद की छवि आपराधिक थी । लगभग 21 प्रतिशत भाजपा के और 16 प्रतिशत कांग्रेस उम्मीदवारों पर क्रिमिनल केस दजॻ थे । 15वी लोकसभा में तय उम्मीदवारों की स्थिति भी यही है । 543 सांसदों में से 70 सांसदों के पर मामला दजॻ है उसमें से 40 सांसदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले है । फिर ऐसी स्थिति मे पप्पू तैयार तो हो गया लेकिन वोट किसे देगा ।

ऐसा नही है कि पप्पू को वोट की अहमियत नही मालूम । लेकिन सच यह है कि पप्पू पप्पू बनने से पहले सियासी पाटिॻयों के प्रचार और एजेण्डे को गौर से निहारता है । पप्पू देखता है कि सभी राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए लुभावने वायदे करने और कभी न पूरा होनेवाले नारे को गमॻजोशी से उछालता है । जिसमें सभी दल एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में लगे हुए है । कोई भी पा‍टी आम मेहनतकश जनता की जिन्दगी से जुड़े रोजगार,शिॿा ,स्वास्थय जैसी बुनियादी मुद्दों को नही उठा रहा है । पानी बिजली और सड़क का मुद्दा तो कब का ग्याब हो चुका है । आसमान छूती मंहगाई का मुद्दा विपॿी दलों ने भी उठाने की कोशिश नही की ....मुददे की जगह बकवास ने अपना स्थान बना लिया । ऐसी स्थिति में पप्पू उपापोह की स्थिति में है कि वह क्या करे आखिर पप्पू वोट किसे दे ।

मंहगाई जब आसमान छू रही है तो मंहगाई चुनावी मुद्दा क्यो नही बन पा रहा है । प्याज की बढ़ती कीमतोंं ने दिल्ली विधानसभा को ले उड़ा था फिर अभी तो सभी चीज की कीमत मंहगी है लेकिन यह तो मुददे से गायब है । एक तरफ अजुॻन सेन गुप्त कमेटी की रिपोटॻ है जिसमें भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से गुजारा कर रही है,सोचने की बात यह है कि आसमान छूती मंहगाई में वह आबादी क्या खा रही होगी । दाल और सब्जी तो पहले ही गरीबों की थाली से गायब हो चुकी है और जो बचा है वह भी ग्याब होने की स्थिति में है । सवाल यह है कि फिर पेट की आग चुनावी मुद्दा क्यों नही बनता । आखिर पप्पू क्या करे ।

देश की स्थिति यह है कि एक तबका शेखी से पप्पू बने रहना चाहता है । यह वह तबका है जिसे मतदान या लोकतंत्र के महापवॻ से कोई मतलब नही है । वोट डालने डाॅक्टर, इंजीनियर ,पत्रकार या रईस उद्योगपति नही जाते है । उन्हे वोट देने जाने के वक्त कड़ी धूप लगती है । वोट डालने वही वगॻ जाता है जो गरीब है कमजोर है॥झुग्गी झोपड़ी जैसी मलीन बस्तियों में रहता है...और जहरीला पानी पीता है । लेकिन देश में विकास का माॅडल उन रईसो के लिए बनता है जिसके पास अपना आशियाना है । सड़के भी वही तक बनती है ताकि उनकी लम्बी गाड़ी उस पर फिसलन महसूस करे । विकास की पटरी वही जाकर समाप्त हो जाती है और 80 प्रतिशत जनता सड़क पर ही छूट जाती है ऐसी स्थिति में पप्पू को पप्पू बनना ही ज्यादा अच्छा लगता है ।

इस चुनावी उठापटक में एक चीज सामने आयी कि जनता का वोट देने में कोई विश्वास नही रह गया है । वह सोचने लगी है कि जीते कोई भी उसका किस्मत नही बदलने वाला है । उसका पेट कमाने से ही भरेगा, जो उम्मीदवार जीतेगा वह अपनी तिजोौरिया भरेगा फिर हम उसके लिए वोट डालने क्यों जाएं । हकीकत में वोट डालने का जुनून आस्था या किसी पाटीॻ को जीताने का मकसद बहाने कम लोगो को होता है । कुछ गरीब आबादी अपना पेट बेचकर जरूर वोोट डालता है उसके लिए यह महीना सीज़न कहलाता है कम से कम जीने के लिए नही तो पीने के लिए जरूर कुछ मिल जाता है । ऐसे में वोट डालने का क्या मकसद रह जाता है और किस मकसद से पप्पू केम्पेन चलाया जाता है । फिलहाल पप्पू यही सोच रहा है ।

Sunday, May 10, 2009

कुछ नही होगा तो आंचल में छुपा लेगी मुझे
मां कभी सर पे खुली छत नही रहने देती ।
आज मदसॻ डे है । मदसॻ डे के अवसर पे मुनब्बर राना की कलम से लिखी ये नज्म पेश कर रहा हूं । राना ने अपनी कलम से मां की ममता का जो बखान किया है वह काबिलेतारीफ है । बल्कि सच कहूं तो वे लोग खुशकिस्मत है जिनके पास मां है । मां के आंचल तले ॿमाशीलता,दशॻन और संस्कृति की जो विरासत मुझे मिली है उसे मै कलम के जरिये नही बयां कर सकता । मां कितनी खूबसूरत होती है जो बच्चे को जन्म देती है...पालती है ...और अपने आंचल के साये में पाल कर बड़ा करती है ।

कभी सोचता हू कि भगवान ने कितनी खूबसूरत दुनिया बनायी है...और इस दुनिया में एक मां भी बनाया है । मां के होने का एहसास किसे नही है । बचपन में चंदा मामा की वह कहानी याद नही है जिसमें मां लौरिया सुनाया करती थी...प्यार से खाना खिलाया करती थी...और स्कूल जाने के लिए तैयार करती थी । बचपन का वह एहसास आज भी याद है । स्कूल से लौटते वक्त मां क्या नही खिलाने का प्रयास करती थी ।

मां का काम यही खत्म नही होता है । मां की ममता मिसाल है जो अंत तक अपने बच्चों को खुश देखना चाहती है । यही वजह है कि रोज सुवह जगने के वक्त मां की ममता का एहसास जरूर होता है । तभी तो फिल्म दीवार से लेकर ए।आर।रहमान के आस्कर जीतने तक मां की बखान और गुनगान होता है । आज भी जिनके पास मां है उसे किस चीज की कमी है ।

Friday, May 1, 2009

चुनाव है तो छोटे दल भी अपना ताकत दिखा रहे है

लोकसभा चुनाव का तीसरा दौर पूर हो चुका है । 13 मई तक आखिरी दौर के लिए मतदान का समापन हो जाएगा । यह चुनाव का पांचवा और अंतिम दौर होगा । उसके बाद से सरकार के गठन के लिए सियासी गठजोड़ तेज हो जाएगा । कहने का तात्पयॻ यह है कि छठे दौर के लिए सियासी दल तैयारी में लगे हुए है । चुनाव का यही दौर है जब सियासी दल सरकार बनाने के लिए किसी हद तक गुजरने को तैयार हो जाते है । इस मायने में इस बार का लोकसभा चुनाव अनूठा है । देश के दो बड़े सियासी दल कांग्रेस और भाजपा में किसी दल को उम्मीद नही है कि वह अपने बूते सरकार का गठन कर पाएगी वैसे में गठजोड़ के जरिए ही शासन की सीढी तक पहुंचा जा सकता है । इस सीढ़ी को जो दल पा लेगा वही ताकतवर और चुनाव का असली पहेरूए माना जाएगा । कहने को तो इस बार के चुनाव में यह देखने को मिला कि हम अपनी अहमियत दिखाने के लिए चुनाव लड़े रहे है । जी हां लालू प्रसाद यादव रामविलास पासवान को साथ लेकर चुनाव लड़े रहे है । जिसके लिए उसने कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया । कांग्रेस भी गठबंधन नही होने की स्थिति में अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए । लेकिन राजनीति की हद भी यही देखी । हर चुनावी सभा में लालू और पासवान ने कांग्रेस से इतर अपने लिए वोट मांगी लेकिन जनता को यह जरूर बताया कि सरकार कांग्रेस पाटीॻ की ही बनेगी और उसमें हमारा अहम रोल होगा । यही बात तो सियासत को महान बनाती है , इरादा है कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का लेकिन अपनी अहमियत के आगे सारे गठबंधन धड़े के धड़े रह जाते है । आखिर अपनी ताकत का एहसास तो कराना है ।
सियासत के इसी पाठ को यूपी में भी देखा गया जब अमर सिंह की गिरगिटिया नीति के आगे गठबंधन नही हो पाया । और अकेले चुनाव लड़ने की नौवत आन पड़ी । अमर-लालू-पासवान की तिकड़ी तैयार हो गई । शायद उन्हे लगा कि तीनो मिलकर यूपी और विहार की अधिकतर सीटे जीत लेगे और सरकार बनाने के लिए कांग्रेस पर दबाब बनाएगे । मनमाफिक मंत्री पद भी मिलेगा और पाटीॻ भी ताकतवर हो जाएगी । किंगमेकर की भूमिका में जो ठहरे । लेकिन ताजा जो हालात दिख रहे है उससे तो नही लगता है कि मन की लालसा पूरी हो पाएगी । अभी पूरी तरह नही कहा जा सकता है कि परिणाम क्या आएगे लेकिन आसार कम ही है ।
सवाल साधारण है मूल में सियासत है जिसके ऊपर बहस होनी चाहिए । कमोवेश सभी राज्य की यही स्थिति है । पीएमके से लेकर जयललिता और मायावती इसी राजनीति के जरिए आगे आ रही है और अपने को ताकतवर करने में जुटी है । 1998 में एनडीए की सरकार बनी थी तो इन ताकतवर महिलाओं को राजनीति का जो पाठ अटल विहारी को पढ़ाया था शायद वो न भूलें । इसी के मूल में आकर 2004 में यूपीए की सरकार बनी और उस सरकार में शामिल बाम दलों ने राजनीति का जो पाठ कांग्रेस को सिखाया और अंत में जाकर सरकार से अलग हो गयी किसी से छुपा नही है ।
अब सवाल यह है कि सियासत के लिए राजनीतिक दलों का यह बदलाव भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए कितना सही है । और यह सियासत लोकतंत्र को कितना मजबूत बना सकती है सोचने पर मजबूर करता है ।