Wednesday, February 25, 2009

अब तो बाज़ार में बचपन भी बेचा जा रहा है

मेरी ख़्वाहिश है कि मै फिर से फरिश्ता हो जाऊ
मां से इस तरह लिपटू कि बच्चा हो जाऊ
कम से कम बच्चों के होठों के हंसी के खातिर
ऐसी मिट्टी में मिलाना मुझे कि खिलौना हो जाऊ
मशहूर शायर मुनब्बर राना की कलम से ये पंक्तियां निकली है ...राना ने अपने कलम के जरिये मां की ममता को लेकर एक बच्चे की ख्वाहिश को बयां किया है । राना के शब्दों में एक बच्चे की खुशी चंद खिलौने में है जिसमें अपना अक्स देखने के लिए वे खुद को मिट्टी में मिलाने की दुआ कर रहे है । ऐसी मिट्टी जिसे कोई मेहनतकश आकार देगा । कहने का तात्पयॻ यह है कि वह बच्चा बड़ा नही होना चाहता है...मां के गोद में ही खेलना चाहता है...मां से चंदा मामा की गीत सुनना चाहता है....और खिलौने में सिमटकर रहना चाहता है । लेकिन मनोरंजन चैनलों को शायद यह मंजूर नही है...लगता तो ऐसा है कि इन चैनलों ने बच्चे के बचपने को उससे छीन लिया है ....और हमारे दौर के बच्चे को बक्त से पहले बड़ा कर दिया है । उनका मचलता बचपन और खिलता मासूमियत टीआरपी के हवस में खोता जा रहा है....अब वे बच्चे नही है बल्कि कमाई का एक जरिया है....जिन्हे कामयाबी और निराशा का भार इसी उम्र में अपने कंधों पर लेकर चल पड़ना है । अब बचपन के कंधे कमजोर नही होते...उसे तो बुलंदी पर चढ़ने का भार बचपन में ही मिल जाता है...।
बात अपने अनुभव से ले रहा हूं । उस दिन रात के ग्यारह बजे हमारी उंगलिया रिमोट पर किसी पसंदीदा चैनल को ढ़ूढ़ रहा था कि अचानक मेरी उंगली एक मनोरंजन चैनल पर जा ठहरी । कुछ बच्चे दशॻकों को हंसाने की कोशिश कर रहे थे । इसमें एक ग्यारह साल की लड़की के जरिए काॅमेडी परोसी जा रही थी...बच्ची के कामेडि परोसने का नजरिया ऐसा था कि मै अपना पसंदीदा चैनल देखना भूल गया । बच्ची ने कहा कि हिन्दी फिल्म का एक डाॅयलाग आम है मै जरा गौर से सुनने लगा । बच्ची ने कहा कि सुनो मै तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं । बच्ची ने आगे कहा कि निन्यानवे प्रतिशत हीरोइने ये डाॅयलोग शादी से पहले बोलती है । मै हतप्रभ था पर दशॻक और जज उस लड़की की बातो से लोटपोट हो रहे थे । तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बमुश्किल से एक नौ साल की लड़की स्टेज पर आई । उसने शोले फिल्म के एक डाॅयलांग की याद को ताजा करते हुए बोली कि हंगल साहब ने अपने एक डायलाग में कहा कि काश मेरे पास एक और बेटा होता जिससे मै रामगढ़ पर कुबाॻन होने के लिए दे देता ....इस बात को सुनकर रामगढ़ की महिलाओं ने हंगल साहब को कभी अपने घर नही बुलाने का फैसला लिया । काॅंमेडि के इस नजरिए को देखकर मै हैरान था ।
सिलसिला यही नही थमा.....सात साल की एक लड़की ने काॅमेडि को ऐसे अंदाज में पेश किया कि हमारी संस्कृति तार-तार हो गई....हमने जिस बचपन को बचपन समझ रखा था वह तो हमसे भी बड़ा निकला । हमने कभी सोचा नही था कि सात आठ साल की ये बच्चियां कभी मां बनने की भूमिका निभाएगी तो कभी अश्लील दृश्य के लिए अपने आप को तैयार करगी । डांस करना तो एक कला है लेकिन उसके माध्मम से अश्लीलता को परोसना इन बच्चियों के लिए कहां तक उचित है । गांव में तो छह सात साल तक की लड़कियां तो ठीक से स्कूल जाना शुरू नही करती है और न ही अपनी मां से अकेले होना चाहती है....फिर इस तरीके से स्किप्ट तैयार करना और उसे लाइट कैमरा एक्शन के जरिए दशॻकों तक परोसना ंनामुमकिन है लेकिन शहरी संस्कृति ने सब कुछ सही कर दिया है....अब तो शहर की लड़कियां पैदा होते ही बड़ी हो जाती है और सात आठ साल में ही सतरह अठारह साल की लड़कियों की तरह तामझाम और भूमिकाओं में नज़र आने लगी है ।
हमें बुलंदियों से कोई गुरेज नही है...हमारी तो तमन्ना है कि लड़कियां दस साल की दहलीज तक पहुंचते ही कल्पना चावला और सुनीता के रास्ते पर चल निकले । वैसा बनने के नक्शे कदम पर चले या उस उम्र तक वैसी हो भी जाये ...देश का नाम भी काफी हद तक रौशन होगा और हम भी उसे आगे बढ़ने के लिए तैयार रहेगे ...लेकिन यह तरक्की का कैसा जरिया है जो तरक्की पाने के लिए उस उम्र को खोता जा रहा है जिससे उम्र में फिर से लौटने की ख़्वाहिश अक्सर अपने साथियों और अन्य लोगों से सुनता रहता है...जो बचपन के बिताये पल को बयां करते नही थकते है । पर यहां तो बचपन को लूटा जा रहा है...उसे तार-तार किया जा रहा है जिसे खोने का गम न तो उन दुधमुंहे बच्चे-बच्चियों को है और न ही उनके मां-बाप को । आखिर क्या उसके खोतेे बचपन को लौटाया जा सकता है
मसलन बात यहां आकर अटक जाती है कि इसके लिए जिम्मेवार कौन हैं...वह नाबालिग बच्चे-बच्चिया या इनके जरिए काॅमेडी कायॻक्रम में अपने बच्चे की कामेडी पर दांत निपोरते उसके मां-बाप । आखिर किसी को तो यह जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी । सबसे बड़ी बात तो उस उजार बचपन का है जिसे छीना जा रहा है .... उन बुलंदियों को चूमने के लिए जिस बुलंदी को उसके मां-बाप तमाम उम्र गुजारने के बाबजूद हासिल नही कर पाए और जो अपने बच्चे के जरिए सब कुछ हासिल करना चाहते है । लेकिन उन्हे यह नही पता कि उसके बुलंदियो से क्या छीनते जा रहे है । आखिर इन बच्चों को तैयार करना ...स्किप्ट याद कराना और पदॻ पर नामचीन कलाकारों के सामने परोसना ...क्या इस उम्र के लिए सही है । सबसे बड़ी बात तो बच्चों के सर पर दिखने वाला टेशन होता है जो उसके नाकामी के बाद साफ झलकता है । इन चैनलों को देखने वाले इस बात को जरूर गौर से देखे होगे या महसूस किये होगे । आखिर इस बच्चो को इस उम्र में ही इतनी बड़ा बोझ देने से क्या वे सचमुच बड़े हो जाएगे या एक बार कमजोर कंधे नाकामियों के दलदल में चले जाएगे.... मानसिक तनाव में बाद की जिन्दगी जीयेगे । समय के साथ जरूरी नही है कि सभी बच्चे को सफलता मिले फिर वैसी स्थिति में वे क्या करेगे । बाल अधिकार कानून समेत हम तमाम लोगों को इस और ध्यान देने और गंभीर होने की ज़रूरत है । ताकि बचपन को बचाया जा सके ।

Tuesday, February 17, 2009

जब चुनाव आयोग की अस्मिता ही खतरे में हो


भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है.....और यह पिछले साठ साल से सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तमगा लेकर जी रहा है । लोकतंत्र को बनाए रखने और उसकी सेहत को मजबूत बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आम जनता चुनाव में अधिक से अधिक संख्या में हिस्सा ले....और सरकार के गठन में अपनी समुचित भागीदारी तय करे । चुनाव में लोगो की भागेदारी को सुनिश्चित कराने के लिए तथा राजनीतिक दलो का चुनाव में पारदशिॻता बरतने के लिए चुनाव आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत 25 जनवरी 1950 को किया गया था । जो एक संविधानिक संस्था है जिसपर लोकसभा,राज्यसभा,विधानसभा,राष्टॺपति और उपराष्टॺपति तक के निवाॻचन की जिम्मेवारी होती है । साथ ही लोगो के बीच विश्वास बहाली के लिए साफ-सुथरा और स्वच्छ मतदान कराना भी आयोग का एक महत्वपूणॻ कत्तॻव्य होता है । संविधान की इसी प्रक्रिया के तहत सुकुमार सेन 21 माचॻ 1950 को पहले निवाॻचन आयोग नियुक्त किए गए और 1958 तक अपने पद पर बने रहे ।
सुकुमार सेन के बाद भी इस संविधानिक पद की गरिमा को संविधानिक प्रक्रिया के तहत सुसोभित किया जाता रहा ....और यह एक स्वतंत्र और निष्पॿ संस्था बनी रही । चुनाव से लेकर सभी मापदंडों में अपने पद का निवाॻह करती रही....इस पर न ही किसी तरह के आरोप लगे और न ही किसी तरह के गलत रवैये की शिकायत कही से की गई तात्पयॻ इसने अपने मद और मयाॻदा को कायम रखा । यह कवायद सन 1989 तक चलती रही....और देश में चुनाव आयोग के रूप में एक मुख्य चुनाव आयुक्त का गठन होता रहा ।
नब्बे के दशक से चुनाव आयोग के मामले में राजनीतिक पाटिॻयों ने दखल देना शुरू कर दिया ....मुख्य चुनाव आयोग के साथ दो और चुनाव आयुक्त का गठन किया जाने लगा । उसके बाद के समय में 12 दिसम्बर 1990 को टी।एन शेषण जैसा चुनाव आयुक्त देश को मिला जिसने इस पद और गरिमा को और आगे बढ़ाया । इससे अलग उसने आयोग में कई सुधार और मतदान संबंधी कई महत्वपूणॻ कदम भी उठाए । देश में पहली बार लोगो को आयुक्त के अधिकार और शक्ति का एहसास हुआा लेकिन राजनीतिक दलों की हिस्सेदारी ने इसे कमजोर करना प्रारंभ कर दिया और संसद में एक नए कानून लाकर 1993 में मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ दो अन्य आयुक्त के गठन का बिल संसद में पास कर दिया ।यह आयोग में राजनीतिक दखल और इसे कमजोर करने का एक अभिनव प्रयास था
अब राजनीति का प्रवेश इस कदर हो चुका है कि नवीन चावला और गोपालस्वामी के विवाद से समझा जा सकता है । नवीन चावला पर जहां कांग्रेस का सहयोगी होने और उसकी तजॻ पर चलने का आरोप लगता रहा है वही गोपालस्वामी भाजपा के शासनकाल में लालकृष्ण आडवाणी के गृहमंत्री के काल में सचिव के पद पर नियुक्त थे....और काफी सेवा दे चुके है । फिर तो दोनो का सियासी मामला साफ दिखाई दे रहा है । नवीव चावला को हटाने की मांग भाजपा काफी समय से कर रही है ....और वचाव में यूपीए सरकार के कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज तक आगे आ गए । फिर दोनो के मामलों से दिखता है कि दूध के घुले कोई भी नही है.....। फिर गोपालस्वामी ने चावला को हटाने की सिफारिश भी सरकार क सामने रख डाली । ताजा विवाद से जो मामला सामने आया उससे तो लगता है कि आयोग की अस्मिता ही अब खतरे में है । जब ऐसे पदों पर बने लोग भी इस तरह का विवाद खड़ा करने लगे तो चिंता की लकीर देश के सामने खींची जा सकती है । फिर जब लोकसभा का चुनाव दरवाजे पर दस्तक देनेवाली है वैसी स्थिति में आयोग का यह झगड़ा हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कितना मजबूती दे पाएगा यह सोचने का विवश करने लगा है । इससे भी ज्यादा जरूरी तो यह है कि जब आयोग एक साथ मिल जुल कर काम नही करेगंे तो क्या देश एक स्वच्छ मतदान की आस देख सकता है .... जब व्यवस्था को देखकर आंखो में आसू आ जाए तो उसके परिणाम के आने का कितना इंतजार किया जा सकता है .....फिलहाल तो दोनो आयुक्तो के बीच जंग जारी है ।

Saturday, February 7, 2009

आईपीएल की मंडी में सभी बिकने को तैयार हैं

केविन पीटरसन और ंएंडॺयू फ्लिंटाॅफ को राजस्थान और चेन्नई की टीम ने क्रमशः अपनी झोली में डाल लिया । अब ये खिलाड़ी आईपीएल की मंडी में सबसे मंहगे खिलाडी बन गए । इनकी दोनो की बोली 7।5 करोड़ रूपए में लगाई गई । इससे पहले यह ताज भारतीय टीम के युवा कप्तान महेन्दॺ सिंह धोनी के हाथ में था । और वे दुनिया के सबसे मंहगे खिलाड़ी धोषित हुए थे । अब धोनी पर पीटरसन और फ्लिंटाफ भारी पर गए । जिसकी आशंका बाजार में पहले से लगाई जा रही थी....बोली लगाने के लिए आएपीएल की सारी हस्तियां गोवा में जुटी हुई थी । इस बार शिल्पा शेटटी ने भी एक टीम खरीदी है...जूही भी शामिल हो गई है । इससे पहले केवल प्रीति जिंटा ने ही इसमें शिरकत की थी और मोहाली टीम का अपने हिस्से में रखा था । जो भी हो फिलहाल चचाॻ बोली को लेकर है ।
आईपीएल की मंडी में क्रिकेट को इस कदर ला खड़ा किया है कि यह क्रिकेट कम मनोरंजन ज्यादा दिखने लगा है । एक ऐसा खेल जो लोगो को फटाफट चोको-छक्कौ की बौछार दिखाए और देखने वाले भी तीन धंटे में अपने घर में आराम फरमाए ...मसलन यह दास्तान भी यहां जरूरी नही है ....लोगो को इस फारमेट के बारे में सारी जानकारी हासिल है । मसला है खेल का ंंमंडी में तब्दील होने का और उसमें ग्लैमर का समाहित हो जाने का । आखिर जेंटलमेन का गेम कही जाने वाले क्रिकेट को ऐसी ग्लैमर की हकलान क्यो आ पड़ी...कभी यह खेल सादगी का माना जाता था अब इसका स्थान चीयर लीडसॻ ने ले लिया है । भला जेटलमेन गेम को चीयर लीडसॻ का कैसा जुनून । इसी को समझने की जरूरत है ।
दरअसल क्रिकेट का यह गेम पैसे की मंडी बनता जा रहा है । जहां इसमें खिलाड़ियों के लिए पैसे की भरमार है तभी तो इसमें कमाई के लिए फिल्मी हस्तियों ने भी शिरकत करना शुरू कर दिया और पूरे फामेट को ही बदल डाला । पहले टीम चुनने के लिए विशेषॾ की टीम हुआ करती थी जो अपने हिसाब से टीम चुनती थी अब उनकी जगह शाहरूख खान।प्रीति जिंटा और जूही चावला जैसी सिने हस्ती ने यह काम शुरू किया है । यह न तो पदेॻ पर दिखलाने वाला क्रिकेट है और न ही लगान जैसे किरदार को निभाने के लिए बनाया गया सक्रिप्ट है .....आखिर यह कैसा क्रिकेट है .... जहां सब कुछ पैसे के खेल से होता है ।
क्रिकेट की मंडी में ढ़ल जाने का यह खेल बाज़ारबाद से शुरू होता है....जहां हर चीज की एक रकम होती है । और उसमें जाने वाले से लेकर हर समान तक बिकाऊ होती है ....अंतर बस केवल उसके महत्व का होता है । जिसमें जितनी छमता होती है उसका उतना बोली लगा दी जाती है .... बस बाजार का काम चलता रहता है ॥इसमें किसी तरह के विशेषता की बात नही होती है ...जैसे कहा जाता था कि सबकुछ पैसे से खरीदा जा सकता है उसकी शुरूआत देखने को मिल रहा है......फिर शमीॻदगी की बात तो वहां आती है जब खिलाड़ी बिकने को तैयार हो जाते है... भाई यह कैसी बिकने की प्रथा है.....उसमें भी गवॻ से बिकता है । खासा इंतजाम तो दशॻको के लिए भी होता है जिनका मनोरंजन के लिए चीयर लीडसॻ अपना बदन दिखाने को हाजिर रहती है और तरह-तरह से बदन की नुमाइश का मुजाहिरा करते है ..... कहने का मतलब है कि अब दशॻक भी बिक कर वहां पहुंचते है ....चौके -छक्कौ को देखने या जिस्म देखने का चस्का उन्हे लग गया है....अगर वाकई क्रिकेट तो फिर उनका क्या काम ।
जी बाजार में कुछ समझ में नही आता है ..... पता नही सड़को पर चलते हुए हम बिके हुए हो ...और शाम के वक्त ही हम अपनों के लिए हो .... बाकी बक्त को हम बाजार के चाकर है .... यह तो सब बिके हुए है । खरीददार की कमी नही है बस मौका तो दीजिए । लेकिन इस बाजारवाद ने सारी हदे पार कर दी है । फिर हम तो यही कह सकते है कि अपनी जमीर को मत बेचना बरना कुछ साथ में नही रह जाएगा ।