Thursday, March 26, 2009

लोकसभा चुनावः क्या सच्चा लोकतंत्र यही है

15वीं लोकसभा का चुनाव सामने है सभी दल के उम्मीदवार अपनी ओर से जोर आजमाइश में लगे है ।अपने मोहरे पर विसात विछाने के लिए हर हथकंडे अपनाए जा रहे है । जाति, वगॻ और धमॻ को ताक पर रखकर उम्मीदवार तय किये जाते है । मकसद केवल जीत होता है । सियासी नेताओं को इसकी कतई चिंता नही है कि इस तरह के हथकंडे से किसी वगॻ या समुदाय की आत्मा को चोट पहुंचाया जाता है । राजनीति की इस चौसर में धमॻ का भी कोई मायने नही है॥राम से लेकर रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी चुनावी मैदान में धसीट कर लाया जाता है । ताकि जनता उसके नाम पर वोट देकर उम्मीदवार को भारी मतों से विजयी वनाये ।और राजनीति की रोटी आराम से सेकी जा सके । मुस्लिम समीकरण के नाम पर अपनी नैया पार कराना राजनीति की एक मयाॻदा हो चली है । इसलिए चुनाव के दस्तक देते ही कई ओसामा दिखने लगते है...और वोट की खेती शुरू कर देते है । लेफ्ट का वार हर चुनाव में नज़र आता है और देश को एक नई दिशा देने की बात होने लगती है । इससे पहले न कोई देशहित दिखता है और न ही प्रजाहित । इनके तो अंदाज ही निराले है संसद में गरीब पाटीॻ होने का तमगा ओढ़े रहते है और चुनाव सामने आते ही अपना घोषणापत्र जारी कर किसी दल से कम नही होने का एहसास कराते है । आखिर चुनावी घोषणापत्र में इतने पैसे कहां से आ जाते है । यही हमारी संसदीय राजनीति है जिसके सहारे भोले जनता को अगले पांच साल के लिए देश की दिशा तय करनेवाले दल को चुनना होता है...सवाल है आखिर किसे चुने...संसद से सड़क तक सभी नंगे है । फिर कहां है लोकतंत्र और कहां है उसके होने की मयाॻदा ।
लोकतंत्र को वोटतंत्र से लेकर नोटतंत्र में बदलने की कहानी भी काबिले तारीफ है । जब देश में पहली बार आम चुनाव 1952 में हुए तो वह पल भारतीय लोकतंत्र के लिए अतिविशिष्ट था । उस समय मतपत्र पर न तो उम्मीदवारों के नाम होते थे और न ही चुनाव में भाग लेनेवाले पाटिॻयों के चुनाव चिन्ह मतदाताओं को मिलनेवाला मतपत्र कागज का एक टुकड़ा होता था । मतदाता को इसे अपनी पसंद के उम्मीदवार के बक्से में डालना होता था । आडवाणी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि कुछ उम्मीदवारों के एजेंट पोलिंग बूथ के बाहर खड़े होकर मतदाताओं से कहते थे अपना वोट बक्से में मत डालना । उसे जेब में डालकर हमार पास ले आओं उसके बदले हम तुम्हे एक रूपये का नोट देगें । बीस -पचीस ऐसे मतपत्र जमा हो जाने पर एजेंट का कोई आदमी अंदर जाकर अरने उम्मीदवार की पेटी में डाल देता था । और चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती थी । इस बहस का जिक्र आडवाणी ने अपनी पुस्तक माई कंटीॺ माई लाइफ मे ंकिया है । सवाल है कि इस तरह की बहस से पीएम इन वेटिंग लोगो में क्या संदेश भेजना चाहते है । फिर बासठ सालों से हमार देश में लोकतंत्र होने का जो एहसास आम भारतीय को है उसका मूलमंत्र यही है फिर चुनाव में इतने पैसे खचॻ करने की क्या आवश्यकता है । संविधान विशेषॾ से जब मैने बात की तो उसने बताया कि चुनाव में जनता की अधिक से अधिक भागीदारी और जनता की इच्छा से चुनी गई सरकार ही सही लोकतंत्र होने की निशानी है । तो मेरा सवाल है कि क्या हम उस लोकतंत्र पर खड़े उतरे है ।
नोट देकर वोट खरीदना किसी से छुपा नही है॥अंतर केवल हैसियत की है उसी के हिसाब से पैसे दिये जाते है । और सीधी जनता के वोट को हड़प लिया जाता है॥जाति,वगॻ और धमॻ इसमें संजीवनी की तरह काम करता है । यह काम तो निचले स्तर पर होता है थोड़ा उपर जाने पर नेता किसी दल को समथॻन देने के लिए किस कदर सौदेवाजी करते है किसी से छुपा नही है । संसद में रूपये की गडडी बांटने का मामला अभी ताजा है फिर हम किस तरह के लोकतंत्र की नुमाइंदगी करते है । सवाल तो कई है॥आखिर इस तरह के लोकतंत्र के क्या मायने है । कही अपराधी तो कही सजायाफ्ता आखिर लोकतंत्र के यही मायने रह गये है...वोट देने वक्त हमे यही सोचना है ।

Monday, March 16, 2009

बारूद के ढ़ेर पर खड़ा है पाकिस्तान

सन 1947 ....अंग्रेजों की वषो की गुलामी की पीड़ा से मुक्ति के बाद एक साथ दो देश का जन्म हुआ। जो भारत और पाकिस्तान कहलाया । आजादी का अंतर केवल एक दिन का है....14 अगस्त को पाकिस्तान और 15 अगस्त को भारत । एक दिन के अंतराल ने भारत में एक कुशल नेतृत्व दिया और पाकिस्तान में एक अदद शासक । एक दिन के फासले ने भारत के गले में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का तमगा लटका दिया और पाकिस्तान को बारूद के ढ़ेर पर ला खड़ा किया । 62 साल बीत चुके है॥भारत के लोकतंत्र ने ऊचाई पाई है....दुनिया के सामने मिसाल कायम किया है इसके बरअक्स पाकिस्तान में कभी सियासतदानो ने तो कभी हुक्मरानों ने तो कभी सेना ने अपने मकसद के लिए इसे तार-तार किया है । छह दशक से अपने लंबे काल में कभी सियासतदानों और कभी सेना ने इस मुल्क को कुचला है । और हर बार की तरह सेना के बूटों तले जम्हूरियत ने सिसकियां भरी है...और आज हालात ऐसे हो चले है कि फिर लोकतंत्र अपने आसुंओं पर रोनेवाला है लेकिन उसे पोछनेवाला दूर-दूर तक दिखाई नही दे रहा है ।
हालात के केन्दॺ में राष्टॺपति जरदारी,युसुफ रज़ा गिलानी और सेनाध्यॿ परवेज अशरफ़ कियानी है । अगर थोड़ा पीछे जाए तो मुशरॻफ से मुक्ति से पाकिस्तान को ज्यादा बक्त नही बीते है । काफी हंगामे और खूनखराबे के बीच वहां जम्हुरियत लौटी है...लोकतंत्र का सूरज उगने से पहले इस लोकतंत्र की आहट को जन-जन तक पहुंचाने वाली बेनजीर को रूकसत होना पड़ा । जरदारी साहब को यह कुसीॻ बेनजीर के फना हो जाने से मिली है...आज उसी लोकतंत्र का जरदारी उपहास कर रहे है और इस हालात पर ला खड़ा किये है जहां से पाकिस्तान विनाश के अलावा किसी पथ को नही चूम रहा है । हालात तो फिर बैसे ही होते जा रहे है । जो साल 2007 में थे ।
कियानी साहब को भी इस सत्ता के लिए मेहनत नही करना पड़ा । मुशरॻफ ने वफादारी के लिए उनको कमान दे दिया और जिन्दगी भर वफा का जामा लटका कर रहने को कहा । जिसके कारण शायद मुशरॻफ को अपने जान से हाथ नही गंवाना पड़ा । जैसा कि पाकिस्तान के इतिहास में रहा है कि कोई भी तानाशाह सेना का पद छोड़ने के बाद जिन्दगी नही जीया है लेकिन मुशरॻफ ने इतिहास पलटा है । नामालूम कियानी ने कितनी वफादारी दिखाई है मुशरॻफ को बचाने में । इतिहास ने तो यही सिखलाया है कि हर तानाशाह के साथ गद्दारी ही हुआ है । चलों मुशरॻफ साहब तो अभी जी रहे है ।
गिलानी कही फिंट नही बैठते है । हो सकता है कि वे कृपापात्र हो जिसकी बजह से पीएम की कुसीॻ तक पहुंच गए है । इस बीच पाकिस्तान का मामला फिर गरमा गया है । जजो की बहाली को लेकर जो विरोध शरीफ साहब ने किया था वह बीच में दुम हिलाने लगा था लेकिन फिर से वह मुद्दा तुल पकड़ने लगा है इसके बरअक्स हालात यह है कि शरीफ साहब ने यह ऐलान तब किया है जब उनके भाई को चुनाव लड़ने से रोका गया है । क्या शरीफ साहव ने इसी के कारण पूरे देश में आन्दोलन करने का ऐलान किया है जबकि कयानी ने राष्टॺपति जरदारी को तीन दिनो के भीतर पाक में हालात को ठीक करने को कहा है । क्या है फिर कियानी की पुराने तानाशाहों की पुनरावृत्ति तो नही है । या फिर भीतर से कुछ समझोता हो रहा है जो कियानी को इसके लिए तैयार कर रहा है ।
पता है कि पाकिस्तान ने अपने आधे से अधिक समय सेना के बदीॻ के तले जिया है । सेना ने यहां समय-समय पर आबाम को कुचला है और नागरिक को हर बंधनों से बंधने पर मजबूर किया है । तो क्या ताजा हालात इसी की और इशारा कर रही है ...क्या पाकिस्तान फिर सेना के चंगुल में जा रही है । जरदारी तो यह नही स्वीकारते है लेकिन सच्चाई यह भी है कि जरदारी को जो सत्ता मिली है उन्होने उसका दुरूपयोग ही किया है । शांति के नाम पर उन्होने पाक में कुछ नही किया है । फिर पाक में बेनजीर की हत्या पर मिली सत्ता से वे क्या हासिल करना चाहते है ॥समझ से परे है ।
शरीफ,जरदारी ,गिलानी और कियानी नायक है वत्तॻमान पाकिस्तान के...लेकिन यहा ंके सियासत की सबसे बड़ी दुविधा रही है कि नायक ही खलनायक की भूमिका में होते है । यही तो दस्तूर रहा है आजतक के पाकिस्तान का । हर एक की राजनीति के पीछे वहा की सियासत का इस्तेमाल किया गया है ।

Monday, March 2, 2009

महिला विधेयकः सियासी हलचल में टूटती जिम्मेवारी


देश ने आज़ादी के 62 बसंत देखे है....आजादी के बाद हमने दिखला दिया कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है...लोकतंत्र होंने के तमाम गुण हममे समाहित है...इसके लिए हमने भारतीय संविधान के तमाम अधिकार और कत्तॻव्य का पालन करने का दंभ भरा है । खासकर आजादी और अधिकार के मामले में तो हम किसी से पीछे नही है । अपनी स्वतंत्रता किसे पसंद नही है इसलिए हमने आम जनता की स्वतंत्रता का तमाम ख्याल रखा कि कहीं इसके लिए हाहाकार न मच जाए और विश्व विरादरी के सामने भारत सीना तानकर लोकतंत्र का तमगा लाकर खड़ा रहे । यही सपना हमारे देश के रहनुमा का भी था और उसी को लेकर हम भी जीना चाहते है ।
आज़ादी तो मिल गई....लेकिन शायद अब तक आज़ादी का मायने समझ मे नही आया ।आज़ादी और अधिकार के नाम पर हमने खूब हल्ला मचाया। भागीदारी की बात की...लेकिन आधी आबादी को समान भागीदारी से कोसो दूर रखा । कभी असुरॿा तो कभी कमजोरी को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया । सामाजिक बंधन ने चौकट तक पहुंचने से रोका तो पदेॻ की ओट ने घर के भीतर रहने को मज़बूर किया । चाहरदीवारी ने कहीं मोम की मूत्तिॻ बने रहने को कहा तो रईसी ने कहीं मादकता की बस्तु समझकर दिल बहलाने भर को रहने दिया....कहीं अश्लीलता दम घुंट कर जीने को बेबश किये हुए है....तो कहीं हिंसा और शोषण ने जिस्म की बस्तु बन कर रहने को मजबूर किया है । लेकिन स्वतंत्रता की गूंज सात समुंदर पार तक जाती है ।े
चौदहवी लोकसभा 1738 घंटे तक चली । इसमें 423 घंटे हमने बेबज़ह हंगामे के कारण बबाॻद कर दिया । शेष समय काम में लगाया...अयोग्यता और हिंसा ने यहां भी हमारा पीछा नही छोड़ा।इसके बाबजूद हमने 258 विधेयक इस लोकसभा में पारित हुआ.....जो कानून बनकर तैयार है । पर हमारे सिसायत की त्रासदी यह भी रही है कि संविधान के 73वे और 74वे संशोधन के आधार पर हमने सन 1993 में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरॿण देने का फैसला लिया था । उसके बाद से इस विधेयक पर 46 बार लोकसभा में बहस हो चुकी है....और बहस केवल हंगामा बनकर रह गयी । हर बार हमने महिलाओं के नाम पर तगड़ा बबाल किया....लोकसभा में बहस की परिपाटी ही चला दी । नतीजा सिफर ही निकला ....मलाल सोमदादा को भी रहा जो अब लोकसभा कभी नही आएगें दादा ने भी कहा कि यह हमारे समय का दुभाॻग्य रहा कि हम इस बिल को पास नही करा पाये ।
ये तस्वीर है चौदहवी लोकसभा के परिणाम का । केवल 8 फीसद सांसद लोकसभा में आयी जो देश की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही है । न ही राजनीतिक दलों को महिला को सीट देने में दिलचस्पी रहे है और न ही महिलांए इसमें समुचित रूप से हिस्सा ले पा रही है । फिर हर दल में महिला प्रत्याशी का टोटा पड़ा हुआ है । लोकतंत्र का ताना हम खूब बुने....तमगा लगाकर हम खूब जिये लेकिन इस हकीक़त से भी इन्कार नही किया जा सकता है । जिसका ताजा उदाहरण महिला आरॿण बिल है जो आज भी सिसायत के बूटों तले सिसकिया भर रही है ।
सवाल यही खत्म नही होता है....सवाल उठेंगे तो जिम्मेवारी की बात भी होगी । इसके लिए असली रूप में दोषी कौन है । आरोप पुरूष प्रधान समाज के ऊपर लगाया जाता है । लेकिन असली मसला यही खत्म नही होता है । देश के सवोच्च पद पर महिलाएं आसीन है....सोनिया गांधी देश की सबसे ताकतवर महिला है...हैसियत शायद पीएम से भी ज्यादा की रखती है । प्रथम नागरिक की कुसीॻ पर प्रतिभा पाटिल विराजमान है.....तीन राज्य की मुख्यमंत्री महिला है...दिल्ली इससे अलग है इसे मिलाकर चार हो जाती है । और भी ताकतवर महिलाए राजनीति में हैं जो अपनी हैसियत का हवाला देती रही है और अपने को मजबूत कर भी दिखाया है । फिर क्या इन महिलाओं ने महिला विधेयक के लिए कोई बुंलंद आवाज लगाई है । कोई बहस छेड़ा है...किसी आन्दोलन के लिए तैयार हुयी है। अगर नही तो फिर यह आरोप भी निराधार है .... और न ही पुरूषों का हवाला दिया जाना चाहिए । अगर महिलाओं को महिलाओं से जलन है फिर यह सवाल तो छोड़ देना चाहिए । फिलहाल ऐसी गुंजाइश भी नही लगती है कि इस विधेयक को पास किया जा सकता है ।
आखिर कहीं न कही महिलाएं भी इसके लिए दोषी है । अपनी आजादी के लिए उसे भी खड़ा होना होगा ।