Monday, May 11, 2009

पप्पू वोट देकर क्या करेगा


आंखे खुली तो एफ एम रेडियो की गूंज कानों तक पहुंची । सुवह की फूटती किरणों के साथ पप्पू शोर मचाये हुए था ,इस बार पप्पू नही बनना है ॥वोट देने अवश्य जाएं नही तो पप्पू बन जाओगे । दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय से ही ए।आर।रहमान की धुन पर इस विॾापन को दिल्ली की सड़को ,रेडियों,सिनेमाघर में प्रसारित किया गया था । उसके बाद से तो इस अभियान ने जोर पकड़ ली , ने केवल रेडियो या विॾापन के माध्यम से बल्कि आम जनता के बीच भी इस अभियान को प्रचार-प्रसार के माधयम से आगे बढ़ाया गया खास बात तो यह रही कि इसमें कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी हिस्सा लिया और लोगो को पप्पू बनने से बचने के गुर सिखाता रहा । अब जबकि 15वी लोकसभा के चुनाव दिल्ली में हो रहे है पप्पू प्रचार यहां भी पीछे नही है । लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आखिर चुनाव के वक्त ही पप्पू क्यो नज़र आता है...उससे भी बड़ा सवाल यह कि आखिर पप्पू वोट देकर क्या करेगा ?

यह लोकतंत्र की अजीबोगरीब स्थिति है कि एक तरफ पप्पू को पप्पू नही बनने देने से बचाने के लिए अभियान चल रहा है तो दूसरी और हर बार के चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम होता जा रहा है । आम जनता में मतदान के प्रति उदासीनता बढ़ती जा रही है । भले ही युवाओं को रिझाने के लिए युवा नेता आगे आ रहे है लेकिन दूसरी तरफ युवा है जो पप्पू ही बने रहना चाहते है । लोकसभा चुनाव को ही आकलन के तौर पर ले तो पता चलता है कि 13 वी लोकसभा चुनावों में 60 प्रतिशत से कम लोगो ने मताधिकार का प्रयोग किया इनमें महिलाओं ने कुल वोटों का 55।64 प्रतिशत तथा पुरूषों ने 63।97 प्रतिशत मतदान किया था । उसी तरह 14वीं लोकसभा की स्थिति कमोवेश इसी तरह है जहां केवल 58।07 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने वोट का इस्तेमाल किया । इस बार के लोकसभा चुनाव में भी 55 से 60 फीसदी मतदाता ही उम्मीदवारों के किस्मत का फैसला करने जा रहे है । हाल में ही विधानसभा चुनाव को ही लिया जाय और उसमें भी अगर राष्टीॺय राजधानी दिल्ली की बात करे तो तथ्य चौकाने वाले है । दिल्ली का दॿिणी इलाका सबसे अधिक पढ़ा लिखा और उच्च वगॻ का है लेकिन पिछले तीन चुनावों मे यहां 35 से 40 प्रतिशत तक ही मतदान हुआ । फिर पप्पू बनने का अभियान किसके लिए चलाया जा रहा है ...जो जागरूक है ,सक्रिय है या जिनके ऊपर जागरूक करने की जिम्मेवारी है ।

पप्पू बनने का एक पहलू यह भी है कि अगर पप्पू विॾापन से प्रभावित होकर वोट देने के लिए तैयार होता है तो वोट किसे देगा । देश में हालात इस कदर खराब हो चुके है कि नेताओं और अपराधियों में फकॻ करना मुश्किल हो गया है । उदाहरण के तौर पर अगर दिल्ली विधानसभा को ही ले तो एक सवेॻ के मुताबिक 39 फीीसदी विधायक दागी है यानि राजधानी दिल्ली के विधानसभा में 91 विधायकों की पृष्ठभूमि आपराधिक है । आम चुनाव की स्थिति भी यही है । 14 वी लोकसभा के चुनाव में हर पांचवे में से एक सांसद की छवि आपराधिक थी । लगभग 21 प्रतिशत भाजपा के और 16 प्रतिशत कांग्रेस उम्मीदवारों पर क्रिमिनल केस दजॻ थे । 15वी लोकसभा में तय उम्मीदवारों की स्थिति भी यही है । 543 सांसदों में से 70 सांसदों के पर मामला दजॻ है उसमें से 40 सांसदों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले है । फिर ऐसी स्थिति मे पप्पू तैयार तो हो गया लेकिन वोट किसे देगा ।

ऐसा नही है कि पप्पू को वोट की अहमियत नही मालूम । लेकिन सच यह है कि पप्पू पप्पू बनने से पहले सियासी पाटिॻयों के प्रचार और एजेण्डे को गौर से निहारता है । पप्पू देखता है कि सभी राजनीतिक दल जनता को लुभाने के लिए लुभावने वायदे करने और कभी न पूरा होनेवाले नारे को गमॻजोशी से उछालता है । जिसमें सभी दल एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में लगे हुए है । कोई भी पा‍टी आम मेहनतकश जनता की जिन्दगी से जुड़े रोजगार,शिॿा ,स्वास्थय जैसी बुनियादी मुद्दों को नही उठा रहा है । पानी बिजली और सड़क का मुद्दा तो कब का ग्याब हो चुका है । आसमान छूती मंहगाई का मुद्दा विपॿी दलों ने भी उठाने की कोशिश नही की ....मुददे की जगह बकवास ने अपना स्थान बना लिया । ऐसी स्थिति में पप्पू उपापोह की स्थिति में है कि वह क्या करे आखिर पप्पू वोट किसे दे ।

मंहगाई जब आसमान छू रही है तो मंहगाई चुनावी मुद्दा क्यो नही बन पा रहा है । प्याज की बढ़ती कीमतोंं ने दिल्ली विधानसभा को ले उड़ा था फिर अभी तो सभी चीज की कीमत मंहगी है लेकिन यह तो मुददे से गायब है । एक तरफ अजुॻन सेन गुप्त कमेटी की रिपोटॻ है जिसमें भारत की 77 प्रतिशत आबादी 20 रूपए प्रतिदिन के हिसाब से गुजारा कर रही है,सोचने की बात यह है कि आसमान छूती मंहगाई में वह आबादी क्या खा रही होगी । दाल और सब्जी तो पहले ही गरीबों की थाली से गायब हो चुकी है और जो बचा है वह भी ग्याब होने की स्थिति में है । सवाल यह है कि फिर पेट की आग चुनावी मुद्दा क्यों नही बनता । आखिर पप्पू क्या करे ।

देश की स्थिति यह है कि एक तबका शेखी से पप्पू बने रहना चाहता है । यह वह तबका है जिसे मतदान या लोकतंत्र के महापवॻ से कोई मतलब नही है । वोट डालने डाॅक्टर, इंजीनियर ,पत्रकार या रईस उद्योगपति नही जाते है । उन्हे वोट देने जाने के वक्त कड़ी धूप लगती है । वोट डालने वही वगॻ जाता है जो गरीब है कमजोर है॥झुग्गी झोपड़ी जैसी मलीन बस्तियों में रहता है...और जहरीला पानी पीता है । लेकिन देश में विकास का माॅडल उन रईसो के लिए बनता है जिसके पास अपना आशियाना है । सड़के भी वही तक बनती है ताकि उनकी लम्बी गाड़ी उस पर फिसलन महसूस करे । विकास की पटरी वही जाकर समाप्त हो जाती है और 80 प्रतिशत जनता सड़क पर ही छूट जाती है ऐसी स्थिति में पप्पू को पप्पू बनना ही ज्यादा अच्छा लगता है ।

इस चुनावी उठापटक में एक चीज सामने आयी कि जनता का वोट देने में कोई विश्वास नही रह गया है । वह सोचने लगी है कि जीते कोई भी उसका किस्मत नही बदलने वाला है । उसका पेट कमाने से ही भरेगा, जो उम्मीदवार जीतेगा वह अपनी तिजोौरिया भरेगा फिर हम उसके लिए वोट डालने क्यों जाएं । हकीकत में वोट डालने का जुनून आस्था या किसी पाटीॻ को जीताने का मकसद बहाने कम लोगो को होता है । कुछ गरीब आबादी अपना पेट बेचकर जरूर वोोट डालता है उसके लिए यह महीना सीज़न कहलाता है कम से कम जीने के लिए नही तो पीने के लिए जरूर कुछ मिल जाता है । ऐसे में वोट डालने का क्या मकसद रह जाता है और किस मकसद से पप्पू केम्पेन चलाया जाता है । फिलहाल पप्पू यही सोच रहा है ।

Sunday, May 10, 2009

कुछ नही होगा तो आंचल में छुपा लेगी मुझे
मां कभी सर पे खुली छत नही रहने देती ।
आज मदसॻ डे है । मदसॻ डे के अवसर पे मुनब्बर राना की कलम से लिखी ये नज्म पेश कर रहा हूं । राना ने अपनी कलम से मां की ममता का जो बखान किया है वह काबिलेतारीफ है । बल्कि सच कहूं तो वे लोग खुशकिस्मत है जिनके पास मां है । मां के आंचल तले ॿमाशीलता,दशॻन और संस्कृति की जो विरासत मुझे मिली है उसे मै कलम के जरिये नही बयां कर सकता । मां कितनी खूबसूरत होती है जो बच्चे को जन्म देती है...पालती है ...और अपने आंचल के साये में पाल कर बड़ा करती है ।

कभी सोचता हू कि भगवान ने कितनी खूबसूरत दुनिया बनायी है...और इस दुनिया में एक मां भी बनाया है । मां के होने का एहसास किसे नही है । बचपन में चंदा मामा की वह कहानी याद नही है जिसमें मां लौरिया सुनाया करती थी...प्यार से खाना खिलाया करती थी...और स्कूल जाने के लिए तैयार करती थी । बचपन का वह एहसास आज भी याद है । स्कूल से लौटते वक्त मां क्या नही खिलाने का प्रयास करती थी ।

मां का काम यही खत्म नही होता है । मां की ममता मिसाल है जो अंत तक अपने बच्चों को खुश देखना चाहती है । यही वजह है कि रोज सुवह जगने के वक्त मां की ममता का एहसास जरूर होता है । तभी तो फिल्म दीवार से लेकर ए।आर।रहमान के आस्कर जीतने तक मां की बखान और गुनगान होता है । आज भी जिनके पास मां है उसे किस चीज की कमी है ।

Friday, May 1, 2009

चुनाव है तो छोटे दल भी अपना ताकत दिखा रहे है

लोकसभा चुनाव का तीसरा दौर पूर हो चुका है । 13 मई तक आखिरी दौर के लिए मतदान का समापन हो जाएगा । यह चुनाव का पांचवा और अंतिम दौर होगा । उसके बाद से सरकार के गठन के लिए सियासी गठजोड़ तेज हो जाएगा । कहने का तात्पयॻ यह है कि छठे दौर के लिए सियासी दल तैयारी में लगे हुए है । चुनाव का यही दौर है जब सियासी दल सरकार बनाने के लिए किसी हद तक गुजरने को तैयार हो जाते है । इस मायने में इस बार का लोकसभा चुनाव अनूठा है । देश के दो बड़े सियासी दल कांग्रेस और भाजपा में किसी दल को उम्मीद नही है कि वह अपने बूते सरकार का गठन कर पाएगी वैसे में गठजोड़ के जरिए ही शासन की सीढी तक पहुंचा जा सकता है । इस सीढ़ी को जो दल पा लेगा वही ताकतवर और चुनाव का असली पहेरूए माना जाएगा । कहने को तो इस बार के चुनाव में यह देखने को मिला कि हम अपनी अहमियत दिखाने के लिए चुनाव लड़े रहे है । जी हां लालू प्रसाद यादव रामविलास पासवान को साथ लेकर चुनाव लड़े रहे है । जिसके लिए उसने कांग्रेस को हाशिये पर धकेल दिया । कांग्रेस भी गठबंधन नही होने की स्थिति में अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए । लेकिन राजनीति की हद भी यही देखी । हर चुनावी सभा में लालू और पासवान ने कांग्रेस से इतर अपने लिए वोट मांगी लेकिन जनता को यह जरूर बताया कि सरकार कांग्रेस पाटीॻ की ही बनेगी और उसमें हमारा अहम रोल होगा । यही बात तो सियासत को महान बनाती है , इरादा है कांग्रेस के साथ सरकार बनाने का लेकिन अपनी अहमियत के आगे सारे गठबंधन धड़े के धड़े रह जाते है । आखिर अपनी ताकत का एहसास तो कराना है ।
सियासत के इसी पाठ को यूपी में भी देखा गया जब अमर सिंह की गिरगिटिया नीति के आगे गठबंधन नही हो पाया । और अकेले चुनाव लड़ने की नौवत आन पड़ी । अमर-लालू-पासवान की तिकड़ी तैयार हो गई । शायद उन्हे लगा कि तीनो मिलकर यूपी और विहार की अधिकतर सीटे जीत लेगे और सरकार बनाने के लिए कांग्रेस पर दबाब बनाएगे । मनमाफिक मंत्री पद भी मिलेगा और पाटीॻ भी ताकतवर हो जाएगी । किंगमेकर की भूमिका में जो ठहरे । लेकिन ताजा जो हालात दिख रहे है उससे तो नही लगता है कि मन की लालसा पूरी हो पाएगी । अभी पूरी तरह नही कहा जा सकता है कि परिणाम क्या आएगे लेकिन आसार कम ही है ।
सवाल साधारण है मूल में सियासत है जिसके ऊपर बहस होनी चाहिए । कमोवेश सभी राज्य की यही स्थिति है । पीएमके से लेकर जयललिता और मायावती इसी राजनीति के जरिए आगे आ रही है और अपने को ताकतवर करने में जुटी है । 1998 में एनडीए की सरकार बनी थी तो इन ताकतवर महिलाओं को राजनीति का जो पाठ अटल विहारी को पढ़ाया था शायद वो न भूलें । इसी के मूल में आकर 2004 में यूपीए की सरकार बनी और उस सरकार में शामिल बाम दलों ने राजनीति का जो पाठ कांग्रेस को सिखाया और अंत में जाकर सरकार से अलग हो गयी किसी से छुपा नही है ।
अब सवाल यह है कि सियासत के लिए राजनीतिक दलों का यह बदलाव भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए कितना सही है । और यह सियासत लोकतंत्र को कितना मजबूत बना सकती है सोचने पर मजबूर करता है ।