Monday, January 5, 2009

दिल्ली में कड़ाके के ठंढ़ के बीच चलती जिन्दगी

दिल्ली समेत देश के अन्य राज्यो में शीतलहर का कहर जारी है.....ठंढ़ और उसमें कोहरे के साथ चलते मंद पवन देवता भी लगता है कि ज़िगर में छेद करने आये है....मंद मुस्कान बिखेरती ये हल्की हवा बेवजह दांतों और पैरों को थिरकाने लगती है । सुवह के वक्त तो धुंध भी लगता है उसके साथ भाईचारा निभाने साथ खड़ा हो जाता है...सुवह के समय जल्द तैयार होने की जल्दी होती है...उसके लिए जल्द स्नान करना और आॅफिस के लिए तैयार हो जाना और भी ज़रूरी हो जाता है । यूं ही आजकल बाॅस आॅफिस लेट पहुंचने के ताने देते रहते है ....और काम पूरा नही होने की बात होती रहती है । थोड़ा देर हो जाने पर बाॅस की मुबाइल की घंटी बस में कोलाहल मचाना शुरू कर देता है । दुसरी और ये धुंध है जो थमने का नाम ही नही ले रहा है । सुवह के समय तो ये धुंध और हल्का अंधेरा कोट-पेंट वाले के अंदर भी सिहरने पैदा कर देता है । ख़ासकर आॅफिस जाने के वक़्त तो इसकी चचाॻेए-आम होती है । लोग-बाग आफिस लेट होने की दुहाई कोहरे को देते रहते है....कोई समय पर जग नही पाने का राग अलापता है तो कोई धुंध और ठंढ़ के कारण आलस्य को दुहाई देता है । आलम यही होता है कि सदॻ अपनी जगह हर लोगो के जेहन में बनाए ंरखती है और चचाॻ समाप्त होते-होते आॅफिस की डगर सामने दस्तक देने लगता है । लोग-बाग अपनी ड्यूटि निभाने और अपना काम पूरा करने में सब कुछ भूल जाते है...सिलसिला आजकल हर दिन जारी है ।
दरअसल ये दस्तूर उनके लिए जारी है जिनके पास सारा कुछ है ...पहनने के लिए अच्छे गमॻकपड़े है । कोटॻ,पेंट और टाई के बीच पवन देव को भी शरीर के भीतर जगह बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है । फिर भी मौसम की मार और बदलते मिज़ाज की हर जगह गुफ्तगू है ...लेकिन वे बेख़बर है ...जिनके लिए न तो पहनने के लिए गमॻ कपड़े है न ओढ़ने के लिए गमॻ चादर ....सड़क के फुटपाथ पर आज भी जिन्दगी की शुरूआत होती है और भोर होने के साथ-साथ रात भी अपनी शबाब के साथ समाप्त हो जाती है.... और ये लोग वहीं के वही रह जाते है । इनके सर पर न तो कोई छत है न ही कोई जमीन ...इनके लिए तो सड़क के किनारे बने फुटपाथ ही खूबसूरत जगह है । अपनी लाचारी के मारे ये दूर के राज्यो से रोजी-रोटी की जुगार में यहां आये है । इन्हे क्या पता है कि इनके लिए यहां के हालात उतने आसान नही है ...यहां भी पहले मशक्कत करनी पड़ती है । बेचारे को नही मालूम है कि मंदी भी कोई चीज होती है । ये तो हालात के मारे यहां पहुंचे है बरना गांव में तो ये मालिक की भी बात नही मानते थे अनाज कम होने पर ही उनके खेतो में काम करने जाते थे । पूरी तरह स्वतंत्र और आजाद थे ॥लेकिन आज हालात ने इस कदर ठोकर मारी है कि शहर के छोटे मकान भी मयस्सर नही है । चांद पर हम पताका लहराने पहुंचे है ...लेकिन क्या पता कि चांद पर लगा धव्वा क्या इन्ही लोगो की वजह से लगा है सोचने और जानने की जरूरत है । ऐसे में चांद के क्या मायने है...जब अपना हर रोज साथ निभाने वाला ही चांद उदास है । पहले इस चांद के मुंह में निवाला डालने का प्रयास होना चाहिए । ठंढ़ तो उनके लिए है जिसके पास तन ढ़कने को कपड़े है और रूम में जलाने के लिए रूम हीटर है...और चलती गाड़ी में एसी लगी है...यहां का सारा काम प्रकृति के नही मालिक के मनमाफिक चलता है । लेकिन यहां तो सदॻ को दूर करने के लिए मुट्ठी ही काफी है । इन गरीवो ने अपनी मुट्ठी में ही ठंढ़ को कैद कर रखा है । इस व्यवस्था को पाटने की जरूरत है ।

5 comments:

श्रद्धा जैन said...

Dheeraj aapki klama mein bhaut taqat hai aap jab likhte hain to vicharon ko dil tak pahunchate hain

bahut achha laga aapka thand ke mousam main joshila aur aag bharta hua lekh

प्रदीप मानोरिया said...

really very nice article

सुरेन्द्र Verma said...

Khalihan shirshak achchha hai.

Note: Aap apna mail option ko khol de taki aapke prashno ka jawab mil sake.
Dhanyabad !

राजीव करूणानिधि said...

वाह धीरज. एक बार फिर से बधाई आपको अच्छा लेख लिखने के लिये. जारे का मौसम गरीबों के लिये मौत के समान होती है. सही कहा आपने.

रंजना said...

bahut sahi kaha.....