15वीं लोकसभा का चुनाव सामने है सभी दल के उम्मीदवार अपनी ओर से जोर आजमाइश में लगे है ।अपने मोहरे पर विसात विछाने के लिए हर हथकंडे अपनाए जा रहे है । जाति, वगॻ और धमॻ को ताक पर रखकर उम्मीदवार तय किये जाते है । मकसद केवल जीत होता है । सियासी नेताओं को इसकी कतई चिंता नही है कि इस तरह के हथकंडे से किसी वगॻ या समुदाय की आत्मा को चोट पहुंचाया जाता है । राजनीति की इस चौसर में धमॻ का भी कोई मायने नही है॥राम से लेकर रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विध्वंस को भी चुनावी मैदान में धसीट कर लाया जाता है । ताकि जनता उसके नाम पर वोट देकर उम्मीदवार को भारी मतों से विजयी वनाये ।और राजनीति की रोटी आराम से सेकी जा सके । मुस्लिम समीकरण के नाम पर अपनी नैया पार कराना राजनीति की एक मयाॻदा हो चली है । इसलिए चुनाव के दस्तक देते ही कई ओसामा दिखने लगते है...और वोट की खेती शुरू कर देते है । लेफ्ट का वार हर चुनाव में नज़र आता है और देश को एक नई दिशा देने की बात होने लगती है । इससे पहले न कोई देशहित दिखता है और न ही प्रजाहित । इनके तो अंदाज ही निराले है संसद में गरीब पाटीॻ होने का तमगा ओढ़े रहते है और चुनाव सामने आते ही अपना घोषणापत्र जारी कर किसी दल से कम नही होने का एहसास कराते है । आखिर चुनावी घोषणापत्र में इतने पैसे कहां से आ जाते है । यही हमारी संसदीय राजनीति है जिसके सहारे भोले जनता को अगले पांच साल के लिए देश की दिशा तय करनेवाले दल को चुनना होता है...सवाल है आखिर किसे चुने...संसद से सड़क तक सभी नंगे है । फिर कहां है लोकतंत्र और कहां है उसके होने की मयाॻदा ।
लोकतंत्र को वोटतंत्र से लेकर नोटतंत्र में बदलने की कहानी भी काबिले तारीफ है । जब देश में पहली बार आम चुनाव 1952 में हुए तो वह पल भारतीय लोकतंत्र के लिए अतिविशिष्ट था । उस समय मतपत्र पर न तो उम्मीदवारों के नाम होते थे और न ही चुनाव में भाग लेनेवाले पाटिॻयों के चुनाव चिन्ह मतदाताओं को मिलनेवाला मतपत्र कागज का एक टुकड़ा होता था । मतदाता को इसे अपनी पसंद के उम्मीदवार के बक्से में डालना होता था । आडवाणी ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि कुछ उम्मीदवारों के एजेंट पोलिंग बूथ के बाहर खड़े होकर मतदाताओं से कहते थे अपना वोट बक्से में मत डालना । उसे जेब में डालकर हमार पास ले आओं उसके बदले हम तुम्हे एक रूपये का नोट देगें । बीस -पचीस ऐसे मतपत्र जमा हो जाने पर एजेंट का कोई आदमी अंदर जाकर अरने उम्मीदवार की पेटी में डाल देता था । और चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न हो जाती थी । इस बहस का जिक्र आडवाणी ने अपनी पुस्तक माई कंटीॺ माई लाइफ मे ंकिया है । सवाल है कि इस तरह की बहस से पीएम इन वेटिंग लोगो में क्या संदेश भेजना चाहते है । फिर बासठ सालों से हमार देश में लोकतंत्र होने का जो एहसास आम भारतीय को है उसका मूलमंत्र यही है फिर चुनाव में इतने पैसे खचॻ करने की क्या आवश्यकता है । संविधान विशेषॾ से जब मैने बात की तो उसने बताया कि चुनाव में जनता की अधिक से अधिक भागीदारी और जनता की इच्छा से चुनी गई सरकार ही सही लोकतंत्र होने की निशानी है । तो मेरा सवाल है कि क्या हम उस लोकतंत्र पर खड़े उतरे है ।
नोट देकर वोट खरीदना किसी से छुपा नही है॥अंतर केवल हैसियत की है उसी के हिसाब से पैसे दिये जाते है । और सीधी जनता के वोट को हड़प लिया जाता है॥जाति,वगॻ और धमॻ इसमें संजीवनी की तरह काम करता है । यह काम तो निचले स्तर पर होता है थोड़ा उपर जाने पर नेता किसी दल को समथॻन देने के लिए किस कदर सौदेवाजी करते है किसी से छुपा नही है । संसद में रूपये की गडडी बांटने का मामला अभी ताजा है फिर हम किस तरह के लोकतंत्र की नुमाइंदगी करते है । सवाल तो कई है॥आखिर इस तरह के लोकतंत्र के क्या मायने है । कही अपराधी तो कही सजायाफ्ता आखिर लोकतंत्र के यही मायने रह गये है...वोट देने वक्त हमे यही सोचना है ।
जय श्रीराम
10 years ago
9 comments:
नोट देकर वोट खरीदना किसी से छुपा नही है॥अंतर केवल हैसियत की है उसी के हिसाब से पैसे दिये जाते है । और सीधी जनता के वोट को हड़प लिया जाता है॥जाति,वगॻ और धमॻ इसमें संजीवनी की तरह काम करता है । यह काम तो निचले स्तर पर होता है थोड़ा उपर जाने पर नेता किसी दल को समथॻन देने के लिए किस कदर सौदेवाजी करते है किसी से छुपा नही है । संसद में रूपये की गडडी बांटने का मामला अभी ताजा है फिर हम किस तरह के लोकतंत्र की नुमाइंदगी करते है । सवाल तो कई है॥आखिर इस तरह के लोकतंत्र के क्या मायने है । कही अपराधी तो कही सजायाफ्ता आखिर लोकतंत्र के यही मायने रह गये है...वोट देने वक्त हमे यही सोचना है .....
सोच कर तो हम यही vot देते हैं फिर भी एक गलत इन्सान को चुन लेते हैं ...!!
जब तक हम नोट ले कर, जात पात के नाम से, धर्म के नाम से वोट देते रहेगे, तब तक यह गुंडॆ घमे युही पीसते रहेगे. ओर यह प्रजा तंत्र नही, नोट ओर गुंडा तंत्र है, जिस मे नोटॊ की गाड्डियां देने वाला भी शर्म नही करता, ओर लेने वाला भी शर्म नही करता..... जब तक ऎसे नेता आते रहे अपने वोट इन्हे मत दो....आप खुद ही देख ले कितने गुंडे बदमाश , चोर उच्चके, हथियारे, बलताकारिये आज हमारे नेता बने हुये है, केसे ?नोटो की बदोलत, जात पात के कारण, धर्म के कारण.
आप ने बहुत ही सुंदर बत अपने लेख मै लिखी है ्काश लोग इस पर अमल करे.
धन्यवाद
एक गलत इन्सान को चुन लेते हैं ...!!
...सवाल है आखिर किसे चुने...संसद से सड़क तक सभी नंगे है ।
...वोट देने वक्त हमे यही सोचना है .....
काश लोग इस पर अमल करे.
आपकी बात से सहमत हूँ. यह लोकतंत्र लोक का तंत्र नहीं बन पा रहा है.
वोट की राजनीति में सबसे अहम् भूमिका बस अब नोट की ही रह गई है ........
हर ५ साल बाद नेता आते हैं, जनता को बेवकूफ बनाते हैं, नोट बांटते हैं फिर उसी जनता से १० गुना वसूलते हैं
kya kare bhai ...ham voter bhi to mafi ke kaabil nahi hai ...janate hue wahi karte hai jo nahi karana chahiye..
Dheeraj Sahab,
Aap likhate bahut hi achchha hain magar ek patrakar kya har Lekh me NEGATIVITY hi kyon darshaye? Manata hun ki haalaat bahut bure hain lekin inme bhi bahut si achchhaiyaan hai... Jaise ki Bachpan bik raha hai TV ke reality shows me lekin Dhabon par, Gharon men, Patakhon ke karkhano me aur kahan nahin bhachpan aur bachche bikte the, hain aur shayad rahenge...
Mere dost, is nakaratmak soch bar bahas karen, par bekar me ise nakaaren naa...
vaise likha aapne achchha hai, Aur padhana chahunga...
Vaastav me hamare loktantra ne , votetantra se lekar notetantra tak ek lambi yatra ki hai.
Ise dubara track par lane ki jarurat hai anyatha....
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